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श्रमण संघ : ४११
रखी हुई वस्तु को लेना, किसी वस्तु को नीचे रखना, कायोत्सर्ग करना या खड़ा होना, बैठना, सोना और शरीर को सिकोड़ना-ये सभी कार्य प्रमार्जन पूर्वक करणीय होते हैं । प्रतिलेखन का साधन मुनि का चिह्न भी कहलाता है।'
प्रतिलेखन का मूल उद्देश्य भी अहिंसा महाव्रत का विशुद्ध रूप में परिपालन है । अतः प्रतिलेखन में बहुत सावधानी अपेक्षित है। उत्तराध्ययन में कहा हैप्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद कथा करता है, प्रत्याख्यान करता है, दूसरों को पढ़ाता तथा स्वयं पढ़ता है-प्रतिलेखना में प्रमत्त वह मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस् काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय इन षटकायिक जीवों का विराधक (हिंसा करने वाला) होता है ।
रात्रि में सोते समय मल-मूत्रादि विसर्जन के लिए जब श्रमण बीच में उठते हैं और पुनः जाकर लेटते हैं या करवट बदलते हैं तो पहले शरीर और शयनासन का पिच्छिका से प्रमार्जन कर लेना चाहिए, ऐसा न करने पर निश्चित हो उससे जीव हिंसा होगी। नीतिसार ग्रंथ में कहा है-छाया में, आतप में अथवा गमन के समय, छाया से आतप में आने तथा आतप से छाया में जाने से पूर्व एवं एक स्थान से दूसरे स्थान गमनागमन करने से पूर्व मृदुतापूर्वक पिच्छी से शरीर का आलेखन कर लेना चाहिए। बिना पिच्छी के कोई भी श्रमण सात कदम गमन करता है तो उससे उत्पन्न दोष कायोत्सर्ग करने से शुद्ध होता है, एक कोस गमन से उत्पन्न दोष के लिए एक उपवास तथा इससे ऊपर प्रतिकोश दूना-दूना उपवास करके प्रायश्चित्त होता है । अतः बैठने, उठने, गमन करने, हाथ-पैर के संकोचनप्रसारण, उत्तानशयन, करवट बदलने आदि शारीरिक क्रियाओं में पिच्छिका से अपने शरीर का प्रमार्जन कर लेना चाहिए ।
पिच्छिका से जीवदया का पालन होता है। लोगों में 'यति' (श्रमण) विषयक विश्वास उत्पन्न करने का यह चिह्न है। यह प्राचीन मुनियों का प्रतिबिम्ब रूप है । अर्थात् पिच्छी धारण करने से प्राचीन मुनियों का जो रूप था १. आयाणे निक्लेवे ठाणनिसीयणतुयट्टसंकोए ।
पुन्वं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ।। ओघनियुक्ति ७१०. २. उत्तराध्ययन २६।२९,३०. ३. वही, १०।२१
४. नीतिसार, ४३. ५. सप्तापादेषु निष्पिच्छः कायोत्सर्गाद्विशुद्धयति । ... गव्यतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते ॥ चारित्रसार ४४, प्रायश्चित्त
चूलिका ४४. ६. भगवती आराधना ९६ । ७. वही, ९७ । . .
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