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४१० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन प्रायश्चित्त, आहारकाल, गमन आदि अनेक प्रसंगों में संयम और विनय के उपकरण का कार्य करती है । ___मयूर पिच्छी में पाँच गुण हैं जिनके कारण वह प्रशंसनीय मानी जाती हैधुलि को ग्रहण नहीं करना, स्वेद (पसीने) से मलिन नहीं होना, मृदुता, सुकुमारता
और लघुता (हल्कापन)।' इस प्रकार धूलि, रज और पसीने को ग्रहण न करने से सदा ही प्रतिलेखन करने में स्वभाविक सरलता बनी रहती है । स्पर्श में अति कोमल होने से सूक्ष्म जीवों के भी घात की सम्भावना नहीं रहती । नेत्रों पर घुमाने से भी बाधा नहीं होती। नमनशील होने से उसके तन्तु शीघ्र झुक जाते हैं इससे प्रतिलेखन के समय जीवों को बाधा नहीं होती तथा यह बहुत हल्की है अतः सहज रूप में सदा हाथ में रह सकती है।
प्रतिलेखन के समय मयूरपिच्छी को नेत्रों में फिराने से पीड़ा नहीं होती। अतः सूक्ष्मत्त्व आदि गुणों से युक्त ऐसी ही पिच्छी ग्रहण करना चाहिए ।
भद्रबाहुक्रियासार में पिच्छी को मोक्ष का साधक कारण बताया है और कहा है जो मुनि अपने पास पिच्छी नहीं रखता वह कायोत्सर्ग के समय स्थिति, उत्थान और गमनागमन में अपनी दैहिक क्रियाओं से सूक्ष्म जीवों का नाश करता है । इस हिंसा दोष से कर्मबंध होता है। अतः बिना पिच्छी धारण के संयम सध नहीं सकता और उसे निर्वाण भी प्राप्त नहीं होता।३ द्वीन्द्रियादि अनेक सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जिन्हें चक्षु द्वारा नहीं देखा जा सकता अथवा देखने में बड़ी कठिनाई हो सकती है अतः इन सब जीवों की रक्षार्थ श्रमण प्रतिलेखन ग्रहण करते हैं। • कायोत्सर्ग में, खड़े होने में, संक्रमण (गमन काल) में, कमण्डलु आदि के ग्रहण में, पुस्तकादि के रखने में, शयन में, बैठने में, तथा आहार ग्रहण के बाद उच्छिष्ट के परिमार्जन आदि प्रसंगों में प्रयत्नपूर्वक प्रतिलेखन करना चाहिए क्योंकि यह श्रमणपने का चिह्न है ।" ओघनियुक्ति में भी कहा है कि १. रजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च ।
जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥मूलाचार १०।१९, भ० आ० ९८. २ ण य होदि णयणपीडा अच्छि पि भमाडिदे दु पडिलेहे ।
तो सुहमादी लहुओ पडिलेहो होदि कायव्वो ॥ मूलाचार १०।२२. ३. ठाणणिसिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं ।
दसकत्तरिठाण गदं णिपिच्छे णत्थि णिव्वाणं ।। भद्रबाहु क्रियासार २५.. ४. सुहुमा हु संति पाणा दुप्पेक्खा अक्खिणो अगेज्झा हु।
तम्हा जीवदयाए पडिलिहणं धारए भिक्खू ॥ मूलाचार १०१२०.. ५. ठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे सयणसण पयत्ते ।
पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे ॥ वही १०।२३.. .
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