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४१४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन के श्रमणों को पिच्छी और कमण्डल इन दो उपकरणों के ही रखने का विधान है। पुस्तक, शास्त्रादि ज्ञानोपकरण का भी अपना विशेष महत्त्व है किन्तु इन्हें सदा अपने साथ रखने में बहुविध कठिनाइयाँ रहती है। इसके लिए ग्रामानुग्राम विहार के समय श्रमण इन्हें शास्त्रभण्डारों, जिनालयों तथा स्वाध्याय परायण श्रावकों से प्राप्त करके उपयोग करते हैं। श्रमण संघ : एक पुनरावलोकन :
अत्यन्त सुदूर काल से ही श्रमण संघ का स्वरूप एक सुसंगठित रूप में हमारे सामने आता है। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से अध्यात्म साधना का संघीयकरण भगवान् पार्श्व के समय से या उससे पूर्व ही हो चुका था, फिर भी भगवान महावीर ने तत्कालीन अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए श्रमण संघ का जो पल्लवन किया वह अप्रतिम था। यही कारण है कि मूलाचार के समय श्रमण संघ का रूप गण, गच्छ, कुल आदि रूप में होते हुए भी आत्मनियंत्रित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित रूप में दिखाई देता है । आचार्य, उपाध्याय आदि पदों की व्यवस्था उसके सुव्यवस्थित संचालन और ज्ञान-संयम की वृद्धि एवं आत्मोत्कर्ष के लिए थी। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर-ये संघ के पाँच आधार थे । इसीलिए श्रमण संघ का सक्षम नेतृत्व, सुगठित एवं सर्वांग परिपूर्ण सविधान युक्त था जिसमें अनुशासन, संचालन की प्रविधियाँ और व्यवस्थायें अपने युग की सर्वोच्च उपलब्धियाँ थीं। संघ में आचार्य, उपाध्याय आदि विविध पदों को नियुक्ति भी आचार्य ही करते थे। .
श्रमणों के आहार, विहार, व्यवहार एवं संयम-साधना आदि सम्बन्धी नियम और कर्तव्य सुनिश्चित थे । आचार्य के सानिध्य में संघ में रहकर श्रमण इनका पालन करते हैं। यदि कोई इनका उल्लंघन करता तो उसे व्यवस्थित दण्ड-नीति के अन्तर्गत दण्डित किया जाता था। विशाल संघ के व्यवस्थित संचालन हेतु प्रासुक आहार चर्या तथा निर्बाध ज्ञान-ध्यान और संयम की साधना के लिए गण, गच्छ और कुल की व्यवस्था थी, जो संघ की ही ईकाइयों के रूप में काम करते थे और एक संघ प्रमुख आचार्य के नेतृत्व में ही इनकी व्यवस्था का संचालन होता था। आचार्य ही इनके प्रमुख नियुक्त करता था। सभी की मर्यादायें, परस्पर व्यवहार, कार्यों का विभाजन-सब कुछ व्यवस्थित ढंग से होता था। एक-दूसरे के गण, गच्छ तथा एक-दूसरे आचार्य के पास विशेष ज्ञान-ध्यान की साधना अथवा सल्लेखना आदि के निमित्त आगन्तुक श्रमण के रूप में आने-जाने का मार्ग प्रशस्त था तथा सब कुछ सहज रूप में चलता रहता था।
धीरे-धीरे इन सब में किञ्चित परिवर्तन आया। गण, गच्छ आदि शाखाओं की विभाजन-रेखा स्पष्ट रूप में सामने आने लगी। इसीलिए आचार्य वट्टकेर को
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