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४०८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से ये सदा ही पार्श्वस्थ (दूर रहते हैं । ये गुणधारियों के छिद्र देखने वाले होने के कारण वन्दनीय नहीं है।' ____ आवश्यक नियुक्ति के अनुसार द्रव्यलिंगधारी होकर भी ये भावलिंग विहीन पाँच पापश्रमण वन्दनीय नहीं है। वन्दनोय तो केवल वे ही श्रमण होते हैं जो शुद्ध चाँदी तथा शुद्ध मोहर वाले सिक्के के समान द्रव्य और भाव की विशुद्धता से सम्पन्न होते है। इसीलिए भगवती आराधनाकार ने कहा भी है कि चारित्रहीन लाख संख्या युक्त मुनियों से एक सुशीलमुनि श्रेष्ठ है क्योंकि सुशील मुनीश्वर के आश्रय से शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्रादि गुणों की वृद्धि अवश्य होती है । श्रमण के उपकरण :
श्रमणों के दैनिक जीवन में संयम की रक्षार्थ, आवश्यक क्रियाओं को सम्पन्न करने एवं शुद्धि के लिए तथा स्वाध्याय आदि के लिए पिच्छी, कमण्डलु तथा शास्त्र आदि उपकरणों की आवश्यकता होती है।४ वट्टकेर ने आचेलक्य (नग्नत्व), केशलुञ्चन, शरीरसंस्कार-त्याग और प्रतिलेखन-ये चार लिङ्गकल्प (श्रमणों के चिह्न) माने हैं। प्रवचनसार में जिनमार्ग में मूलतः यथाजातरूप (नग्नत्व), गुरु के वचन (पूज्य गुरुओं के वचनानुसार प्रवृत्ति), विनय (गुणों एवं गुणाधिक मुनियों के प्रति विनय भाव) तथा सूत्रों का अध्ययन-ये चार उपकरण बतलाये गये हैं । पिच्छिका, कमण्डलु आदि बाह्य उपकरण हैं।
मूलाचार तथा वृत्तिकार ने आदाननिक्षेपण समिति के प्रसंग में उपधि (उपकरण) को चार भागों में विभाजित किया है-(१) ज्ञानोपधि (शास्त्र, पुस्तकादि), (२) संयमोपधि (प्राणी दया के निमित्त पिच्छिका), (३) शौचोपधि (मल-मूत्रादि की शुद्धि के लिए प्रासुक जल रखने हेतु कमण्डलु) तथा (४) श्रामण्य योग्य अन्य उपधि (पुस्तक, संस्तर)। कुन्दकुन्द ने कहा है कि उपधि
१. मूलाचार ७९७. २. आवश्यक निर्य क्ति, ११३८. ३. भ. आ०, ३५४. ४. उपकरणस्यपुस्तिकाकुंडिकापिच्छिकादिकस्य-मूलाचार वृत्ति ५।१७७. ५. अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं ।
एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णायन्वो ॥ मूलाचार १०॥१७. उवयरणं जिणमग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं ।
गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिढें ॥ प्रवचनसार २२५. ७. (क) मूलाचार १११४.
(ख) संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे-मूलाचार ४१३१.
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