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श्रमण संघ : ४०७
६. भिध्यानिदानकरण-भिध्या अर्थात् लोभ तथा निदान अर्थात् प्रार्थना या अभिलाषा । इस प्रकार इन्द्र, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का निदान आर्त्तध्यान का पोषण देती है अतः ऐसा करने वाला साधु मोक्षमार्ग का परिमंथु है ।
सच्चे संयमी श्रमण को इन छह कल्प परिमंथु के विषय में सावधान रहना आवश्यक है।
इस तरह पापश्रमण सुख-स्वभावी, सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्रति निरुत्साही, तृष्णा, मोह, अज्ञान और परिग्रह में लिप्त तथा पाप-शास्त्रों का आदर करने वाले होते है। अतः इनके सम्पर्क से संयमी श्रमण को दूर रहना चाहिए । मूलाचारकार ने कहा भी है : असंवृत्ती, नीच और लौकिक-अलौकिक क्रियाओं के ज्ञान से रहित श्रमण यदि चिरप्रवजित भी है तो उसकी संगति का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। वैयावृत्य तथा विनय इनसे रहित, दुःश्रुति के पोषक, वैराग्य रहित, दंभी, निन्दक, पैशुन्यभावयुक्त, मारण-उच्चाटनादि पापसूत्रों का सेवन करने वाले तथा हिंसादि आरम्भ युक्त श्रमण भले हो चिरप्रवजित हो पर यत्नाचारी श्रमण को इनके आश्रय से दूर हो रहना चाहिए ।३ क्योंकि जैसे आम वृक्ष दुराश्रय से निम्बत्व (कड़वेपन) को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आलसी तथा समाचारहीन श्रमण के आश्रय से अच्छे श्रमण भी दूषित हो जाते हैं। ऐसे धमणों को नगर की गन्दी नालियों में बहने वाले मैले पानी के समान वचन रूप मैल (कचरा) धारण करने वाला कहा है।५ शिवार्य ने कहा है कि जो श्रमण चारित्र भ्रष्ट साधुओं की क्रिया करता है वह असंयमी होकर साधुओं के संघ से बाहर हो जाता है और मोक्ष मार्ग से भी दूर हो जाता है । जैसे बकरी का बच्चा सुगन्धित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गन्ध को नहीं छोड़ता उसी प्रकार दीक्षा लेकर भी अर्थात् असंयम को त्यागने पर भी कोई-कोई इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्ध को नहीं छोड़ पाते । शील से दरिद्र मुनि सदा अनन्त दुःख पाते हैं। जैसे बहुत परिवार वाला दरिद्र मनुष्य तीब्र दुःख पाता है । इस तरह दर्शन, १. भ० आ. १९५२-१९५७. २. चिरपव्वइदं पि मुणी अयुट्टधम्मं असंपुडं णीचं ।
लोइय लोगुत्तरियं अयाणमाणं विवज्जेज्ज ।। मूलाचार १०६७. ३. वही, १०६५-६६.
४. वही, १०७०. ५. बिहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्भस्स ।
वरणयरणिग्गम पिव वयणकयारं वहतस्स ।। वही, १०।७१. ६. भ. आ० १२८८, १३०१. ७. तो ते सील दारीद्दा दुक्खमणतं सदा वि पावंति।
बहुपरियणो दरिद्दो पावदि तिव्वं जघा दुक्खं ॥भ० आ० १३०३.
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