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४०६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भ्रष्ट पथिक अवसन्न कहलाते है वैसे ही अशुद्ध चारित्र युक्त संयत मार्ग से भ्रमित श्रमण भाव अवसन्न कहे जाते हैं।'
(५) मृगचरित्र-मृग (पशु) के सदृश आचरण करने वाले श्रमण मृगचरित्र कहे जाते हैं। ये मुनि आचार्य के उपदेश का परित्याग करके स्वछन्द और एकाकी भ्रमण करते हैं, जिन वचनों में दूषण लगाकर तपःसूत्रों के प्रति अविनीत और धृति से रहित हो जाते हैं। ऐसे साधु-संघ छोड़कर, आगम विरुद्ध और पूर्वाचार्यों द्वारा न कहे गये आचारों की इच्छानुसार कल्पना करने में प्रवीण होते हैं। कल्प-परिमंथु साधु : - स्थानांगसूत्र में कल्प अर्थात् श्रमणाचार के छह पलिमंथु या परिमंथु (प्रतिपक्षी) बनाये गये हैं। श्रमणाचार का घात करने वाले साधु कल्पपरिमंथु कहलाते हैं । इसके छह भेद इस प्रकार हैं
- १. कौकुचित-स्थान, शरीर और भाषा की अपेक्षा कुत्सित चेष्टा (चपलता) करने वाले संयम के घातक साधु कौकुचित कहलाते हैं । स्थान कौकुचित से तात्पर्य है जो साधु बैठे या खड़े हुए दीवार या खम्भे आदि पर गिरते हैं, अपने स्थान से इधर-उधर घूमते हैं यन्त्र और नर्तक की भाँति अपने शरीर को नचाते हैं । शरीर कौकुचित का अर्थ है हाथ-पैर आदि अङ्गों को निष्प्रयोजन हिलाना। भाषा कौकुचित का अर्थ है सीटी बजाना, लोगों के हास्य हेतु विचित्र प्रकार से बोलना, अनेक प्रकार की आवाजें करना और भिन्न-भिन्न देशों को भाषा बोलना।
२. मौखरिक-वाचाल साधु सत्य वचन के परिमंथु होते हैं ।
३. चक्षुलोलुप-दृष्टि आसक्त अर्थात् जो अच्छी तरह देखकर नहीं चलते वे साधु ईय समिति के परिमन्थु हैं ।
४. तितिणिक-आहार, उपधि आदि प्राप्त न होने पर खिन्न होकर बकवास करना तितिणिक है । ऐसा करने वाले साधु खिन्नतावश अनेषणोय आहार भी ले लेते हैं । चिड़चिड़े स्वभाव वाला साधु भिक्षा की एषणा का परिमंथु है।
५. इच्छालोभिक-अति इच्छा और लोभ होने के कारण जो अधिक उपषि का संग्रह करते हैं वे इच्छालोभिक साधु मुक्तिमार्ग के परिमंथ हैं।
१. भ. आ० वि० टी० १९५०, पृ० १७२१. २. मूलाचार वृत्ति ७।९६. ३. भ. आ० १३१०. ४. छ कप्पस्स पलिमंथु पण्णत्ता....स्थानांग ६।१०२.
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