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________________ श्रमण संघ : ४०५ आचार में अन्तर हो अतः ऐसे रहने को कहा गया हो तो कोई बहुत सम्भावनायें हैं । चारी हो गये हों अथवा दोनों परम्पराओं के पार्श्वस्थ श्रमणों को हेय समझकर उनसे दूर असम्भव नहीं । इस विषय में शोध-खोज की (२) कुशील - कुत्सित आचरण युक्त स्वभाव वाले श्रमण कुशील कहलाते है ।' साधु संघ से दूर होकर वे मुनि कुशील प्रतिसेवना रूप वन में उन्मार्ग से दौड़ते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप संज्ञा नदी में गिरकर कष्टरूपी प्रवाह में पड़कर डूब जाते हैं। पहले वे उत्तरगुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होकर संसार में भ्रमण करते हैं । वे दूर से ही साधु संग को - त्यागकर कुमार्ग में दौड़ते हैं और आगमोक्त कुशील मुनि के दोषों को करते हैं । ये इन्द्रिय विषय एवं कषाय के तोब परिणामों से युक्त होते हैं तथा व्रत, - गुण और शोल तथा चारित्र को तृणवत् समझते हुए स्वयं का एवं संघ का - अपयश फैलाने में कुशल होते हैं । (३) संसक्त - असंयतों के गुणों में आसक्त श्रमण संसक्त हैं । आहारादि में वृद्धि, वैद्य, मंत्र, ज्योतिष आदि में प्रतिबद्ध एवं राजादि की सेवा में तत्पर रहने वाले संसक्त श्रमण कहलाते हैं । ये नट की तरह आचरण करते हैं । चारित्र प्रिय के सहवास में चारित्र प्रिय तथा चारित्रहीन (अप्रिय) के सहवास में भी वैसे ही बन जाते हैं । ये मात्र इन्द्रिय विषयों में आसक्त, गृहस्थों से राग - तथा स्त्रियों के प्रति संक्लेश परिणामयुक्त होते हैं । ४ ५ (४) अवसन्न ( अपसंज्ञक ) – इन्द्रिय और कषायरूप तीव्र परिणाम होने से सुखपूर्वक समाधि में लगा जो साधु तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी होकर चारित्र भ्रष्ट साधुओं की क्रिया करने लगता है ऐसा साधु अवसन्न कहलाता है । सम्यग्ज्ञानादिक जिनके विनष्ट हो गये हैं, जिनवचनों को न जानकर चारित्रादि से भ्रष्ट, तेरह क्रियाओं को करने में आलसी तथा मन से सांसारिक सुख को चाहने वाले श्रमण अवसन्न कहलाते हैं । जैसे कीचड़ में फँसे हुए तथा मार्ग से १. कुसितं शीलं आचरणं स्वभावो वा यस्यासौ कुशीलः । २. भ० आ० १२९७-१३००. ३. सम्यगसंयत गुणेष्वाशक्तः संसक्तः - वही, ७।९६. ४. भ० आ० वि० टी० गा० १९५०, पृ० १७२२. ५. भ० आ० १२८९. ६. मूलाचार वृत्ति ७ ९६. Jain Education International ww - मूलाचार वृत्ति ७।९६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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