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________________ ४०४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन पाप-श्रमण के भेद : मूलाचार में पाप श्रमण के पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न और मृगचरित्र-ये पाँच भेद किये गये हैं । ये सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अयुक्त तथा धर्मादि में हर्ष रहित होते हैं । (१) पाश्र्वस्थ-संयत के गुणों के पार्श्व में स्थित रहने वाले श्रमण पाश्वस्थ कहलाते हैं । अर्थात् अतिचार रहित संयम मार्ग का स्वरूप जानकर भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करता, परन्तु संयम मार्ग के पास ही रहता है। इस तरह एकान्त रूप से जो असंयमी नहीं है किन्तु निरतिचार संयम का पालन नहीं करने वाले श्रमण पार्श्वस्थ कहलाते हैं। इनमें मोह, आसक्ति और संग्रह की प्रवृत्ति अधिक होती है। वस्तुतः कुछ साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी हिंसक जीवों के द्वारा पकड़े जाकर साधु संघ के मार्ग को छोड़कर साधुओं के पाश्ववर्ती हो जाते हैं । साधु संघ के पाव(दूर)वर्ती हाने से इन्हें पासत्थ या पार्श्वस्थ कहते हैं । जैसे विषैले कांटों से बिंधे हुए मनुष्य अटवी में अकेले पड़े हुए दुःख पाते हैं वैसे ही मिथ्यात्व, माया और निदान शल्य रूपी काटों से बींधे हुए वे पार्श्वस्थ मुनि दुःख पाते हैं। ये संघ का मार्ग त्यागकर ऐसे मुनियों के पास जाते हैं जो चारित्र से भ्रष्ट होकर पार्श्वस्थ मुनियों का आचरण करते हैं। ऐसे मुनि इन्द्रिय, कषाय और विषयों के कारण राग-द्वेष रूप परिणामों और क्रोधादि परिणामों के तीव्र होने से चारित्र को तृण के समान मानते हैं । फलटन से प्रकाशित मूलाचार में कहा है-जो वसतिकाओं में आसक्त है, जो उपकरणों को बनाता रहता है, जो मुनियों के मार्ग का दूर से आश्रय करता है, उसे पाश्वस्थ कहते हैं। पार्श्वस्थ श्रमणों का उल्लेख दिगम्बर और श्वेताम्बर-इन दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में बहुतायत मिलता है। 'पार्श्वस्थ' शब्द से यह भी प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के समय और उनके बाद तक भी भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा के श्रमण विद्यमान होगें। जिनमें कुछ श्रमण कालान्तर में शिथिला १. ....विरदो पासत्थपणगं वा....मूलाचार ७।९५. पासत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो य । दसणणाणचरिते अणिउत्ता मंदसवेगा ॥ मूलाचार ७९६. २. संयत गुणेभ्यः पार्वे अभ्यासे तिष्ठतोति पावस्थः -मूलाचारवृत्ति ७९६. ३. भ० आ० १२८८-१२९४. ४. वसहीसु य पडिवतो अहवा उवयरणकारओ भणिओ । पासत्थो समणाणं पासत्थो णाम सो होई ।। कुन्द० मूला वार ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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