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श्रमण संघ : ४०३
पोषण में प्रवृत्त हो जाते हैं ऐसे मुनि पापश्रमण कहलाते है। वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट श्रमण अपने द्वारा आचरित आचार की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं। वे अहिंसा और संयम की कसौटी को छोड़कर सुविधा को आचार की कसौटी के रूप में मान्य करते हैं। इसीलिए मूलाचारकार ने ऐसे श्रमण को घोड़े की लोद के समान अन्दर से कुथित (निद्य) भावयुक्त तथा बाह्य में बगुले की तरह करण और चरण से युक्त बतलाया है।'
जो आचार्य (गुरु)-कुल अथवा श्रमणसंघ छोड़कर स्वेच्छया विहार करता है, स्वेच्छापूर्वक जैसा चाहे बोलता है, आचार्यादि के उपदेश को नहीं सुनता और न उनकी आज्ञा ही ग्रहण करता है वह पापश्रमण है। पहले शिष्यत्व न करके आचार्यत्व धारण करने की जल्दी करता है-ऐसा पूर्वापर विवेकशून्य ढोंढाचार्य मदोन्मत्त हाथी के समान निरंकुश भ्रमण करता है । अपने को आचार्य कहने-कहलाने वाले, आगमज्ञान से रहित ये पापश्रमण अपना तो विनाश करते ही है साथ ही कुत्सित उपदेशादि के द्वारा दूसरों का भी विनाश करते है। आहार, उपधि और शय्या आदि का बिना प्रतिलेखन (शोधन) किये हो प्रयोग करने वाले ये धर्मरहित-श्रामण्य तुच्छ (समण पोल्लो) श्रमण मूल-स्थान नामक दोष से युक्त होते हैं। पृथ्वीकाय तथा तदाश्रित जीवों पर भी श्रद्धा नहीं करते। अतः ये दीर्घसंसारी मुनि-लिंग में स्थित रहकर भी दुष्टमति वाले होते हैं।' बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार जो दुष्ट, मूढ़ एवं व्युद्ग्राहित (विपरीत बोध में दृढ़) दुःसंज्ञाप्य अर्थात् कठिनाई से समझने योग्य हैं, वे उपदेश, प्रव्रज्या आदि के अधिकारी नहीं होते ।
१. घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहुदकरणचरणस्स । ___ अब्भंतरम्हि कुहिदस्स तस्स दु कि बज्झजोगेहिं ।। मूलाचार १०७३. २. आयरियकुलं मुच्चा विहरदि सम्णो य जो दु एगागी ।
णय गेहदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु । वही १०॥६८. - ३. आयरियत्तण तुरिओ पुत्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं ।
हिंडई ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व ॥ वही १०।६९. ४. ....मूलढाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो ॥
-मूला० १०।२५, भग० आ० २८८. ५. वही, १०॥१२०. ६. बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ उद्देश, सूत्र १२, १३.
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