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४०२ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
प्रयत्नपूर्वक यथायोग्य वैयावृत्ति करना चाहिए। दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिक्रमण तथा ऋषियों की वन्दना, देव वन्दना, स्वाध्याय आदि क्रियाओं को गणस्थ श्रमणों के साथ मिलकर करना चाहिए ।'
मन, वचन और काय के योगों से जिस गण, गच्छ या संघ में जब व्रतआदि में कोई अपराध हो जाये, मिथ्याकार पूर्वक वहीं उसको दूर कर लेना चाहिए । आर्यिकाओं के आने के समय मुनि को अकेले नहीं बैठना चाहिए उसी प्रकार उनके साथ बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए ।
इस प्रकार आगन्तुक श्रमण को उपर्युक्त सभी कर्तव्य यथाविधि करना चाहिए | तथा जो गणवर की इच्छा हो उन सबका पालन आगन्तुक तथा गणस्थ शेष सभी श्रमणों को करना चाहिए ।
जैन परम्परा के उपर्युक्त आगन्तुक श्रमण के समान ही बौद्ध परम्परा में भिक्षुओं को एक विहार से दूसरे विहार में आने-जाने का भी विधान था । इस परम्परा में ऐसे भिक्षु को आगन्तुक भिक्षु तथा संघस्थ भिक्षु को आवासिक भिक्षु कहा जाता था । आगन्तुक भिक्षु जब दूसरे विहार पहुँचता है तब उसे शय्या, शौचालय आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेने का प्रथमतः विधान है । किन घरों में उसे भिक्षा के लिए जाना चाहिए, कुटी से बाहर जाने और वापिस आने के लिए कौन सा समय नियत है— इन सब बातों को तथा यदि भिक्षुओं ने आपस में और भी कोई नियम निश्चित किये हों तो उनको भी पूछकर उसे जान लेना चाहिए । इसी प्रकार आवासिक और गमिक - विहार छोड़कर जाने वाले भिक्षुओं के भी कर्तव्य बौद्ध परम्परा में बताये गये हैं । *
पाप-श्रमण :
श्रमण-धर्म में दीक्षित होने के बाद सावक को अपनी मर्यादानुकूल आचरण करना चाहिए। आचरण में कभी दोष उत्पन्न हो जाय तो प्रायश्चित्तादि द्वारा दूर कर लेना चाहिए तथा पुनः वंसा अतिचार उत्पन्न न हो ऐसा प्रयत्न करते रहना चाहिए । किन्तु जो स्वच्छन्द आचरण करते हैं, आचार्य की उपेक्षा करते हुए धर्मविरुद्ध चलते हैं, वंमा आचरण शास्त्रविहित कहकर अपने शरीरादि
१. मूलाचार ४।१७४- १७५.
२ . वही ४।१७६ - १७७.
३. वही ४।१८६.
४. उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास - पृ० १८२ (डा० नलिनाक्षदत्त एवं कृष्णदत्त वाजपेयी).
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