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श्रमण संघ : ४०१ परगण में आगन्तुक श्रमण के कर्तव्य :-गण में शिष्य रूप में रहने को स्वीकृति के बाद वह अपने श्रमण धर्म का पालन करते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् शुद्धि करके प्रयत्न मन से विनय और उपचार सहित होकर सूत्र और उसके अर्थ के अध्ययन में तत्पर होता है। किन्तु सूत्राथं के अध्ययन में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि का विशेष रूप से ध्यान रखना अपेक्षित है। इनकी शुद्धि के अभाव में लोभवश सूत्रार्थ के अध्ययन से असमाधि अर्थात् मन की एकाग्रता या सम्यक्त्वादि का नाश, अस्वाध्याय, व्याधि, कलह और वियोग अर्थात् आचार्य और शिष्य का सम्बन्ध विच्छेद जैसे महान् दोष तक उपस्थित हो सकते हैं । ' यह शुद्धि मात्र शास्त्रों के पढ़ने में ही नहीं की जाती अपितु जीवदया के निमित्त भी शुद्धि अत्यन्त अपेक्षित है। इसके लिए हाथ की रेखा दिखने योग्य प्रकाश में अर्थात् जितने प्रकाश में नेत्रों से हाथ की रेखाएँ स्पष्ट देखी जा सके उतना प्रकाश होने पर पूर्वाल और अपराह-दोनों समय में प्रयत्न पूर्वक संस्तर और निवास स्थान आदि का पिच्छिका आदि से प्रतिलेखन अवश्य कर लेना चाहिए। क्योंकि अन्धकार में प्रतिलेखन करने से जीव हिंसा होती है।
आगन्तुक श्रमण को नये गण में आकर आचार्य से पूछे बिना अपनी इच्छानुसार कोई कार्य नहीं करना चाहिए । उद्भ्रामक आदि ग्रामचर्या (अर्थात् किसी ग्राम में जाते समय, आहारार्थ गमन करने में, मल-मूत्र आदि त्याग करने के लिए जाते समय) तथा वृक्षमूल योग, आतापन योग आदि उत्तरयोग (प्रकृष्ट योग) प्रारम्भ करते समय उस श्रमण को इच्छाकार पूर्वक अर्थात् विनय पूर्वक आचार्य से पूछकर ही करना चाहिए । जैसे वह आगन्तुक श्रमण पहले अपने संघ में चर्या आदि कार्यों में विनयपूर्वक अपने आचार्य से पूछकर कार्य करता था, उसी प्रकार उसे यहां भी आचार्य के अभिप्राय के अनुसार उनसे आज्ञा लेकर ही इन सब कार्यों को करना चाहिए।
आगन्तुक श्रमण को गच्छ में रहने वाले क्षोण शक्तिक, गुरु (शिक्षा, दीक्षा तथा उपदेश आदि के दाता अथवा तप या ज्ञान में ज्येष्ठ), बाल (नवदीक्षित), वृद्ध, और शैक्ष (शास्त्राध्ययन में तत्पर) मुनियों को अपनी शक्ति के अनुसार १. मूलाचार ४।१६९-१७१. २. न केवल शास्त्रपठननिमित्तं शुद्धिः क्रियते तेन किन्तु जीवदयानिमित्तं चेति
संथारवासयाणं पाणीलेहाहि सणुज्जोवे ।
जत्तेणुभये काले पडिलेहा होदि कायव्वा ॥ मूलाचार ४।१७२. ३. वही ४।१७३.
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