________________
४०० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन.. बाद यदि आचार्य उस आगन्तुक श्रमण को सभी क्रियाओं और आचरण में विशुद्ध, व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला, नित्य उत्साहो, विनीत, बुद्धिमान समझ लेते हैं तब अपने श्रुतज्ञान के सामर्थ्य के अनुसार उसे अपना इष्ट कहते हैं अर्थात् वह जो अध्ययन करना चाहता है उसे अपने ज्ञान की सामर्थ्य के अनुसार पढ़ाना चाहिए अथवा उसे संघ में स्वीकार करके अपनी बुद्धि के अनुरूप अध्ययन कराना चाहिए ।' यदि वह अन्य रूप है, अयोग्य है अर्थात् मुनिव्रत और चारित्र में अशुद्ध है तथा देव वन्दना आदि क्रियाओं में भी अयोग्य है तब उसे यथायोग्य छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त देकर श्रमण पद में स्थिर करना चाहिए । अर्थात् उसकी दीक्षा का एक हिस्सा अथवा आधी दीक्षा या पूरी दीक्षा का तीन भाग छेद (समाप्त) करके पुनः उपस्थापना करना चाहिए । यदि सर्वथा व्रतों से भ्रष्ट है तो पुनः व्रत अर्थात् दीक्षा देना चाहिए। यदि वह मुनि छेद या उपस्थापना प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करे तब वह आगन्तुक श्रमण सर्वथा त्याज्य ही है । फिर भी यदि संघस्थ आचार्य मोहवश उस अयोग्य शिष्य को ग्रहण करते हैं तो वे आचार्य स्वयं ही प्रायश्चित्त के पात्र हो जाते हैं। क्योंकि जो आचार्य शिष्यों के दोष देखकर उन दोषों के निवारण का उपाय नहीं करते, अपितु जिह्वा से मात्र मधुर भाषण बोलते हैं वे भद्र नहीं कहला सकते ।
श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहार सूत्र में कहा है कि-कारण विशेष अथवा प्रयोजन विशेष से अन्य गच्छ से निकलकर आने वाला साधु अथवा साध्वी अखण्डित आचार से युक्त, शबल दोष (व्रतादिक से सम्बन्धित विविध दोष) से रहित तथा क्रोधादि से असंक्लिष्ट होना चाहिए। अपने दोषों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने वाला तथा लगे हुए दोष का प्रायश्चित्त करने वाला हो तो उसके साथ समानता का व्यवहार करना कल्प्य है, अन्यथा नहीं।
इस तरह उपयुक्त विधि सम्पन्न होने पर वह आगन्तुक श्रमण योग्य होने पर विधिपूर्वक शिष्य रूप में ग्रहण किया जाता है।
१. जदिचरणकरणसुद्धो णिच्चुज्जुत्तो विणीदमेधावी ।
तस्सिटठं कधिदव्वं सगसुदसत्तीए भणिऊण ॥ मूलाचार ४।१६७. २. जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं ।
जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गिण्हदि सोवि छेदरिहो ।। वही, ४१६८. ३. भगवती आराधना ४८१. . ४. व्यवहारसूत्र षष्ठ उद्देश्य (जैन सा० का बृ० इतिहास भाग २ पू० २६५.).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.