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________________ श्रमण संघ : ३९९ आगन्तक श्रमण की परीक्षा:-आगन्तुक और गणस्थ श्रमण परस्पर में प्रतिलेखन, भिक्षा, स्वाध्याय और प्रतिक्रमण तथा तेरह क्रियाओं (पंचमहाव्रत, पंचसमिति और तीन गुप्ति) आदि के ज्ञान एवं इनके आचरण की विशुद्धता आदि की परीक्षा करते हैं।' सामायिक आदि षडावश्यक, प्रतिलेखन अर्थात् नेत्रों से जीवों को देखकर या सुक्ष्म जन्तु न भी दिखें तो पिच्छी द्वारा प्रमार्जन करने, परस्पर बातचीत, पुस्तकादि वस्तुयें उठाने-रखने, स्वाध्याय, भिक्षाग्रहण तथा गमनागमन आदि क्रियाओं के सम्पन्न करने की विधि से ही परस्पर की प्रमाद रहित या प्रमाद सहित प्रवृत्ति एवं चारित्र की परीक्षा तथा जानकारी प्राप्त करते हैं । आगन्तुक श्रमण की उपर्युक्त परीक्षा आदि के बाद आचरण की विशुद्धता जानकर वह दूसरे या तीसरे दिन आचार्य (गणाचार्य) के समक्ष विनयपूर्वक प्रस्तुत होकर विद्या-अध्ययन आदि अपने आगमन का प्रयोजन निवेदित करता है। वे गणाचार्य भी संग्रह, अनुग्रह (शिक्षा देने) में कुशल, सूत्रों का अर्थ करने में 'विशारद, विस्तृत कोति वाले, षट् आवश्यक आदि क्रियाओं के आचरण में तत्पर. ग्रहण करने योग्य तथा उपादेय वचन बोलने वाले, गम्भीर, दुर्द्धर्ष, शर, धर्म प्रभावना करने वाले, क्षमागुण में पृथ्वी के सदृश, सौम्यता में चन्द्रमा के समान तथा निर्मलता में समुद्र के समान होते हैं। इन गुणों से विशिष्ट आचार्य को वह आगन्तुक मुनि क्रम से प्राप्त करता है ।। आगन्तुक श्रमग के आगमन का प्रयोजन सुनकर आचार्य उसका सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करने के लिए उससे नाम, कुल, गुरु, दीक्षा के दिन, वर्षावास, आने की दिशा, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि से सम्बन्धित कई प्रश्न पूछते हैं। तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारी कुल एवं गुरु परम्परा क्या है ? दीक्षा गुरु कौन है ? तथा दीक्षा अवधि कितनी है ? इत्यादि के विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं । उससे यह भी पूछते हैं कि तुमने वर्षावास कहाँ सम्पन्न किया ? इस समय कहाँ से या किस 'दिशा से आ रहे हो ? तुमने श्रुत की कितनी शिक्षा प्राप्त की है ? कितने प्रतिक्रमण हुए हैं ? अर्थात् तुमने चातुर्मासिक, वार्षिक, पाक्षिक आदि में से आजतक कितने प्रतिक्रमण किये हैं और कितने नहीं किये ?५ इस तरह के अनेक प्रश्न पूछने के १. मूलाचार ४।१६३. २. वही, ४१६४. ३. वही, ४१६५. ४. वही, ४११५८-१५९. __५. आगंतुकणामकुलं गुरुदिक्खामाणवरिसवासं च । आगमणदिसासिक्खापडि कमणादी य गुरुपुच्छा ।। वही, ४११६६ वृत्ति सहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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