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३९८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
ग्रामों से विहार करता हुआ वह दूसरे गण तक पहुँचता है । इस बीच संयम द्वारा आत्मकल्याण के इच्छुक कुछ शिष्य भी बन सकते हैं । तथा उसे शास्त्र, आदि भी प्राप्त हो सकते हैं। ऐसी अवस्था में वह श्रमण इन द्रव्यों को उस आचार्य के अधिकार के अन्तर्गत समझकर उन्हें सौंपकर ग्रहण करने या ग्रहण न करने की उनसे आज्ञा प्राप्त करता है। क्योंकि आचार्य ही उन द्रव्यादिक को स्वीकृत करने या न करने का अधिकारी होता है।
परगणस्थ श्रमण एवं आचार्य के कर्तव्य-आगन्तुक श्रमण जब अपने गण से दूसरे गण पहुँचते है और परगणस्थ श्रमण आगन्तुक श्रमण को आते हुए देखते हैं तब आचार्य सहित गणस्थ सभी श्रमण उनके प्रति सम्मान, वात्सल्य, जिनआज्ञा, संग्रह (ग्रहण) एवं उन्हें प्रणाम करने हेतु तत्काल खड़े हो जाते हैं।' और सात कदम आगे बढ़ कर उसके प्रति आदर और हर्ष भाव व्यक्त करके परस्पर प्रणाम करते हैं। उसे अपने साथ लाकर योग्य करणीय कार्यों को सम्पन्न करके सम्यग्दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय आदि के निर्विघ्न आचरण की कुशलता के प्रश्न पूछते हैं ।
श्रमण जब कभी कालान्तर में परस्पर मिलते हैं तो मूलगुण तथा रत्नत्रय आदि के निर्विघ्न पालन आदि के विषय में ही कुशलता के प्रश्न पूछते हैं, अन्य सांसारिक प्रश्न नहीं। आगन्तुक श्रमण जिस दिन गण में आते हैं, उस दिन उन्हें विश्राम करने देना चाहिए । ३ तथा नियम से तीन दिन तक उसे आवश्यक क्रियाओं, संस्तर, मलमूत्र-विसर्जन स्थल आदि तथा स्वाध्याय आदि के विषय में जानकारी एवं इन सभी कार्यों में परीक्षा हेतु उनके साथ रहकर उन्हें साहाय्य देना चाहिए। जिससे उसे नये गण में आने पर आवश्यक क्रियाओं आदि को सम्पन्न करने में कोई कठिनाई न हो। तथा वह अपने को इस स्थान के योग्य आचरण वाला (अनुकूल) बना सके । साथ में रहने से उसकी प्रवृत्ति कैसी है ? यह भी ज्ञात हो जाता है।
१. आएसं एज्जंतं सहसा दळूण संजदा सव्वे ।
वच्छल्लाणासंगहपणमणहेदु समुट्ठति ।।वही ४।१६०. २. पच्चुग्गमणं किच्चा सत्तपदं अण्णमण्णपणमं च ।
पाहणकरणीयकदे तिरयणसंपुच्छणं कुज्जा ॥मूलाचार ४१६१. ३. विस्समिदो तद्दिवसं-वही, ४१६५, भ० आ० ४१८. ४. आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दायन्वो ।
किरियासंथारादिसु सहवासपरिक्खणाहेऊं ।वही ४।१६२.
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