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________________ श्रमण संघ : ३९७ द्रव्य, क्षेत्र आदि की दृष्टि से कुछ प्रतिकूलता देखता है तब वह गुरु की आज्ञा से दूसरे गण में अनुकूल वातावरण और योग्य आचार्य के सानिध्य में निर्विघ्न समाधिमरण सम्पन्न करने जा सकता है। दूसरे गण में उस गण के आचार्य आगन्तुक श्रमण की भलीभांति परीक्षा करते हैं । क्षपक की प्रकृति और उसका उत्तम प्रयोजन जानकर वे आचार्य अपने गणस्थ श्रमणों से उसके समाधिमरण निर्विघ्न सम्पन्न कराने के विषय में मन्त्रणा करते हैं और उससे पूर्ण सहयोग प्राप्ति की सम्मति पूछते हैं। क्योंकि समाधिमरण काल में विशेष परिचर्या को तथा परिणामों में निरन्तर विशुद्धता एवं दृढ़ता आदि की विशेष आवश्यकता होती है अतः गणस्थ श्रमणों की इन सबके विषय में पूर्ण सहमति आवश्यक है और इस प्रकार आगन्तुक श्रमण को अपने लक्ष्य प्राप्ति में पूर्ण सफलता मिलती है । श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहारभाष्य में कहा है कि अन्य गण से आये हुए क्षीण आचार वाले साधु-साध्वियों को बिना उनकी परिशुद्धि किये अपने गण में नहीं मिलाना चाहिए। और न उनके साथ आहार आदि ही करना चाहिए । जो साधु-साध्वी अपने दोषों को खुले दिल से आचार्य के सामने रख दें तथा यथोचित प्रायश्चित्त करके पुनः वैसा कृत्य न करने की प्रतिज्ञा करें उन्हीं के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिए।' __ इस तरह उच्च एवं विशेष साधना, ज्ञान प्राप्ति एवं शास्त्र अध्ययन के अतिरिक्त समाधिमरण के उद्देश्य से भी पर-गण अथवा संघ में जाने की प्राचीन परम्परा रही है । किन्तु मूलाचारकार ने यहाँ विशेष रूप में ज्ञान-ध्यान आदि की विशिष्ट साधना के उद्देश्य से ही एक गण से दूसरे गण में जाने हेतु 'आगन्तुक श्रमण' का वर्णन किया है। ___ आगन्तुक श्रमण जब दूसरे गण प्रस्थान करता था तो इस प्रवास के बीच यदि उसे सचित्त, अचित्त तथा सचित्ताचित्त (मिश्र) द्रव्य प्राप्त होता है अर्थात् मार्ग में यदि उसे छात्र, शिष्य आदि तथा शास्त्र आदि और पुस्तक सहित शिष्य की प्राप्ति होती है अथवा श्रमण के ग्रहण योग्य कोई द्रव्य प्राप्त होता है तो जिस गण में वह ज्ञान प्राप्ति हेतु जा रहा है वहाँ के आचार्य उस द्रव्य को ग्रहण करने के योग्य होता है । चूँकि श्रमण मार्ग के मध्यवर्ती नगरों, १. व्यवहारभाष्य : षष्ठविभा'। (जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ३,. १० २६६). २. जंतेणंतरलद्धं सच्चित्तामिस्सयं दव्वं । तस्स य सो आइरिओ अरिहदि एवं गुणो सोवि ।।मूलाचार ४१५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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