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________________ श्रमण संघ : ३९५ होने पर भी नैगम और संग्रह आदि द्रव्यार्थिक नयों की अपेक्षा उपयुक्त सभी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन और नग्नत्व की अपेक्षा ये सब समान हैं । इस प्रकार श्रमण, संयत आदि अनगार के दस पर्यायवाची नामों की दृष्टि से यह अलग-अलग विवेचन यहाँ किया गया । तत्त्वार्थसूत्र में वैयावृत्त्य के दस भेदों के आधार पर भी साधुओं के आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, और मनोज्ञ - इन भेदों की गणना की है। इनमें जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है । मोक्ष के लिए पास जाकर जिससे शास्त्र पढ़ते हैं वह उपाध्याय है । मासोपवास आदि तपों का अनुष्ठान करने वाला तपस्वी कहलाता है । श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और सतत् व्रतभावना में निपुण शैक्ष है। जिनका शरीर रोगाक्रान्त है. वह ग्लान कहलाता है । स्थविर साधुओं की परम्परा को गण कहते हैं । दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं । चार प्रकार के (चातुवर्ण्य) मुनियों के समूह को संघ कहते हैं । जिस श्रमण को दीक्षा लिये बहुत समय बीत गया है उसे साधु कहते हैं । तथा लोक मान्य ( सम्मत) साधु को अर्थात् लोक में जो विद्वान्, वाग्मो, महाकुलीन आदि रूप में प्रसिद्ध हो वह मनोज्ञ. 1) कहलाता है । ऐसे लोगों का संघ में रहना प्रवचनगौरव का कारण होता है अथवा संस्कार सहित, सुसंस्कृत असंयत सम्यग्दृष्टि को भी मनाज्ञ कहते हैं । २ आगन्तुक श्रमणः - वे अतिथि श्रमण आगन्तुक कहलाते हैं जो उच्च ज्ञान प्राप्ति के लिए अथवा सल्लेखनार्थ अथवा विशेष साधना आदि के निमित्त अपने गुरु, गणाचार्य अथवा संघ आदि से सविधि आज्ञा लेकर उस विधि के विशेषज्ञ दूसरे आचार्य के संघ या गण में जाते हैं । ऐसे श्रमण दूसरे गण के आचार्य और उनके श्रमणों के लिए आगन्तुक ( अतिथि) श्रमण हैं । वसुनन्दि के. अनुसार संयम, तप, ज्ञान और ध्यान युक्त जो साधु विहार करते हुए आ रहे हैं. वे आगन्तुक हैं । ऐसे ही साधु यदि कहीं ठहरे हुए हैं तो वे वास्तव्य कहलाते है। मूलाचार में ऐसे ही आगन्तुक श्रमण का विशद विवेचन आचार्य वट्टकेर ने. प्रस्तुत किया है । इससे गणस्थ ( वास्तव्य ) श्रमण और आचार्य तथा आगन्तुक श्रमण- - इन सबके पारस्परिक कर्त्तव्य तथा व्यवहार आदि से सम्बन्धित अच्छी. जानकारी प्राप्त होती है । १. आचार्योपाध्यायतपस्वि शैक्ष्यग्लानगणकुलसंघ साधुमनोज्ञानाम्-तत्त्वार्थसूत्र ९ । २४... २. तत्त्वार्थ वार्तिक ९।२४१३-१४, सर्वार्थसिद्धि ९।२४।८६६, अन० बर्मा० ७१७८. ३. पादोष्णवास्तव्यानां आगन्तुकस्वस्थानस्थितानाम् । - मूलाचार वृत्ति सहित, Jain Education International For Private & Personal Use Only ४१४१. www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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