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________________ ३९४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (१) पुलाक-उत्तरगुणों की भावना रहित ये निग्रन्थ किसी क्षेत्र-काल के आश्रय से मूलगुणों में कदाचित् दोष उत्पन्न होने से परिपूर्णता प्राप्त नहीं कर पाते । ये सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र के धारक और पोत, पद्म तथा शुक्ल-इन तीन शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं । ये मरकर बारहवें स्वर्ग तक जाते हैं। (२) बकुश-ये मूलगुणों की दृष्टि से निर्दोष किन्तु वीतरागता सूचक उपकरणों, शिष्यों एवं शरीर से ममत्वयुक्त होते हैं। इनको छहों लेश्यायें होती हैं । इनका चारित्र चित्रवर्ण होता है । सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रयुक्त होते हैं। चारत्र को दृष्टि से ये पुलाक से श्रेष्ठ हैं इसीलिए ये मरकर अधिक से अधिक सोलहवें स्वर्ग तक जाते हैं। (३) कुशील-प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील-ये कुशील निग्रन्थ. के दो भेद है । प्रथम जिनके मूलगुण और उत्तरगुण दोनों पूर्ण हैं किन्तु कभी उत्तरगुणों में दोष लग जाते हैं। इनमें सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होता है । पांच समिति, तीन गुप्तियाँ तथा छहों लेश्यायें होती है । ये भी मरकर सोलहवें स्वर्ग तक जाते हैं । तथा कषाय कुशील से तात्पर्य जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को रोक लिया है किन्तु संज्वलन कषाय को नहीं रोक पाये है । वैसे ये प्रमादरहित, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्परायघारी होते हैं। परिहार विशुद्धि संयमी निन्थ में कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यायें तथा सूक्ष्मसाम्पराय संयमो को केवल एक शुक्ल लेश्या होती है । ये मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जाते हैं। (४) निर्ग्रन्थ-जिनकी मोह और कषाय की प्रन्थियाँ क्षीण हो चुकी है। अर्थात् जल की लकीर के सदृश अन्तमुहूर्त के बाद ही जिन्हें केवलज्ञान प्रकट होने वाला है। इनमें मोहनीय कर्म का तो उदय नहीं होता, पर शेष घातिया कर्म का उदय होता है । ये यथाख्यात-संयम के धारी तथा शुक्ल लेश्या युक्त होते है । ये मरकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं । (५) स्नातक-जिनके समग्र घतियाकर्म का क्षय हो चुका है । सयोगकेवली तथा अयोगकेवली-ये इनके दो भेद हैं। ये यथाख्यातसंयम के धारी तथा शुक्ल, लेश्यायुक्त होते हैं । इन्हें नियम से मुक्ति प्राप्त होती है। उपयुक्त पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ सभी तीर्थंकरों के धर्मशासन में होते हैं। चारित्रगण के क्रमिक विकास और क्रमप्रकर्ष की दृष्टि से उपयुक्त पांच निर्ग्रन्थों की गणना की है किन्तु चारित्र रूप परिणामों की न्यूनाधिकता के कारण भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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