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श्रमण संघ : ३९३
मुण्ड : मुण्ड ऋषि का पर्यायवाचो है।' मुण्डन शब्द 'खण्डन' करना अर्थात् पांचों इन्द्रियों के विषयों-स्व-व्यापार से निवर्त (अलग) होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस दृष्टि से मूलावार में पाँच इन्द्रिय मुण्डन तथा वचन, शरीर, हस्त, पाद एवं मन-ये पाँच मुण्डन-इस तरह दस प्रकार के मुण्डन बतलाये हैं। इन दस मुण्डवारी को ऋषि कहा गया है।
निर्ग्रन्थ : निग्रन्थ शब्द जैन श्रमणों के लिए प्रयुक्त प्राचीनतम और आगमिक नाम है । शौरसेनी और अर्धमागधी साहित्य में निग्रन्थ शब्द का अधिकाधिक प्रयोग मिलता है । सूत्रकृतांग के अनुसार जो राग-द्वेष रहित होने के कारण अकेला है, बुद्ध है, निराश्रव है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद को जानने वाला है, विद्वान् है, बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार से जिसके स्रोत छिन्न हो गए हैं, जो पूजा, सत्कार और लाभ का अर्थी नहीं है केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्ष-मार्ग को ओर चल पड़ा है, साम्य का आचरण करता है, दान्त है, बन्धनमुक्त होने योग्य है और निर्मम है-वह निर्ग्रन्थ कहलाता है । 'ग्रन्थ' का अर्थ गांठ रूप परिग्रह है । जो राग-द्वेष रूप आन्तरिक तथा धन-धान्यादि रूप बाह्य परिग्रह से सर्वथा मुक्त होता है वह निग्रन्थ अर्थात् आठ कर्म एवं मिथ्यात्व, अविरति और अशुभयोग-इन सब ग्रन्थों (गांठों) को जीतने वाला तथा सरलभाव से प्रयत्न करने वाला निर्ग्रन्थ कहलाता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि होने के साथ ही साथ बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी निग्रन्थ कहलाते हैं। बौद्ध साहित्य में भगवान् महावीर के लिए 'निग्गये नायपुत्ते' शब्द से सम्बोधित करते हुए निर्ग्रन्य शब्द सूचित किया है।
निर्ग्रन्थ के भेद : चारित्र परिणाम को हानि-वृद्धि की अपेक्षा से तथा साधनात्मक योग्यता के आधार पर निन्थ के निम्न पांच भेद हैं - १. मुण्डानामृषीणां-मूलाचार वृत्ति ५।१७६. २. मुण्डनं खण्डनं स्वव्यापारान्निवर्तनं ४।१२१. ३. पंचवि इंदियमुण्डा वचमुंडा हत्थपायमणमुडा ।
तणुमुडेण वि सहिया दस मुंडा वणिया समए ॥ मूलाचार ३।१२१. ४. सूत्रकृतांग १११६६६. ५. (क) निग्गंथाणं ति विप्पमुक्कत्ता निरूविज्जति-दशव० अगस्त्य० चूणि पृ. ५९. (ख) प्रशमरति प्रकरण (उमास्वाति) १४२. (ग) निर्गतो ग्रन्थाद
निग्रन्थः-हारिभद्रीय दशवै० वृत्ति, दशम अध्ययन. ६. पालि दीघनिकाय, सामञफलसुत्त. “७. स्थानाङ्ग सूत्र ५।३।४४५, तत्त्वार्थसूत्र ९४६.. ..
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