________________
३९२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
आचारांग में भिक्ष को निम्नलिखित बातों का ज्ञाता माना है-१. कालभिक्षा आदि के काल को जानने वाला, २. बलज्ञ-भिक्षाटन आदि की शक्ति को जानने वाला, ३. मात्रज्ञ-आहारादि ग्राह्य वस्तु की मात्रा को जानने वाला, ४. क्षेत्रज्ञ-भिक्षाचर्या योग्यायोग्य क्षेत्र को जानने वाला, ५. क्षण-क्षण अर्थात् उचित समय या अवसर को जानने वाला, ६. विनयज्ञ-भिक्षाचर्या की आचार संहिता को जानने वाला अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और औपचारिक-इन पांच प्रकार की विनय को जानने वाला, ७. समयज्ञ-अपने और दूसरों के सिद्धान्त को जानने वाला, ८. भावज्ञ-दाता और श्रोता आदि के प्रियअप्रिय के भाव अर्थात् अभिप्राय को समझने वाला, ९. परिग्रह पर ममत्त्व नहीं करने वाला, १०. उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला तथा ११. अप्रतिज्ञ (भोजन के प्रति संकल्प-विकल्प रहित)।' सूत्रकृताङ्ग में भिक्षु के चौदह पर्यायवाची शब्द उल्लिखित हैं-समण (श्रमण), माहण, क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, ऋषि, मुनि, कृती, (परमार्थ पण्डित), विद्वान्, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी तथा चरणकरण-पारविद् ।
योगी-इस शब्द का प्रयोग भी कुछ स्थलों पर मिलता है। ज्ञानसार के अनुसार जिसने कन्दर्प और दपं का दलन किया है, जो दम्भ तथा काम व्यापार से रहित है जिसका शरीर उग्रतप से दीप्त है, परमार्थतः उसे ही योगी कहते हैं। मूलाचार में कहा है जैसे गिरिराज (सुमेरु पर्वत) पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण से बहने वाली हवाओं से भी चलायमान नहीं होता उसी प्रकार उपसर्ग आदि के समय योगी भी अविचलित रूप से अभीक्ष्ण (निरन्तर) ध्यान (समाधि) को ध्याते हैं । ध्याता (योगी) दो प्रकार के होते हैं। शुद्धात्म भावना की प्रारम्भिक तथा सूक्ष्म सविकल्प अवस्था में जो स्थित हैं वे 'प्रारब्ध योगी' तथा निर्विकल्प अवस्था में स्थित 'निष्पन्न योगी' कहलाते हैं।
१. आचारांग प्रथमश्रुतस्कन्ध, द्वितीय अध्ययन, पंचम उद्देश्यक सूत्र ११०,
(आयारो पृ० ९२.) २. सूत्रकृताङ्ग २. १. १५. ३. मूलाचार ९।११८, १०, ४०. ४. ज्ञानसार, श्लोक ४. ५. जह ण चलइ गिरिराजो अवरूत्तरपुन्वदक्खिणे वाए।
एवमचलिदो जोगी अभिक्खणं झायदे झाणं ॥ मूलाचार १०१११८. ६. पञ्चास्तिकायवृत्ति १७३ पृष्ठ २५४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org