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श्रमण संघ : ३९१
दशवकालिक नियुक्तिकार ने भी श्रमण के उन्नीस पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया है-प्रव्रजित, अनगार, पाखण्डी, चरक, तापस, परिबाजक, समय, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त,. तीर्ण, त्राता, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रुक्ष तथा तीरार्थी ।'
श्रमण के इन नामों से ज्ञात होता है कि नियुक्तिकार भद्रबाह द्वितीय (विक्रम की ५-६ वीं शती) ने अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी परम्पराओं के साधुओं के नामों को श्रमण शब्द का पर्यायवाची मानकर उल्लिखित किया है । इनके अतिरिक्त विभिन्न प्रसंगों में मूलाचारकार ने श्रमण को जिन शब्दों से व्यवहृत किया है उनका स्वरूप प्रस्तुत है
भिक्षु-मूलाचार में अनेक स्थलों पर श्रमण के लिए 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया गया है। जो विनय से युक्त मुनि स्वाध्याय करते हुए, पंचेन्द्रियों के विषय से रहित होकर मन, वचन और काय-इन तीन गुप्तियों को धारण करता है तथा एकाग्रमन से शास्त्रार्थ में संलग्न रहता है वह भिक्षु कहलाता है। जो शास्त्र की नीति व मर्यादानुसार तपःसाधना करता हुआ कर्म-बंधनों का भेदन करता है, वह भी भिक्षु है। जो मन की भूख अर्थात् तृष्णा एवं आसक्ति का भेदन करता है वह भाव रूप भिक्षु है । दशवकालिक में कहा है-जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, अगृद्ध है, अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करने वाला है, संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है, क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत तथा सर्व संगों (परिग्रहों) से रहित (निलेप) हैं-वह भिक्षु है । १. पव्वइए अणगारे पासंडे चरग तावसे भिख्खू ।
परिवाइये य समणे णिर्गथे संजए मुत्ते ॥ तिन्ने ताई दविए मुणी य खते दंत विरए य । लुहे तीरठेविय हवंति समणस्स नामाई ॥
-दशवै० नियुक्ति गाथा १५८-१५९. २. मूलाचार ५।२१३, ७.३९, १०।२०, ५७, ५८, १२३, १२४. ३. सज्झायं कुम्वंतो पंचेन्दियसंवुडो तिगुत्तो य । हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहि ओ भिक्खू ॥
-मूलाचार ५।२१३, १०७८. ४. यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुः ।
-दशव० हारिभद्रीय वृत्ति अ० १०. ५. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा ३७५. ६. उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अन्नायउंछंपुल निप्पुलाए ।
कयविक्कयसन्निहियो विरए सव्वसंगावयए य जेस भिक्खू ।। दशवै० १०।१६.
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