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३९० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समान निःसंग या सब जगह बिना रुकावट के विचरनेवाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर के समान गम्भीर, मन्दराचल अर्थात् सुमेरु-पर्वत के समान परोषह और उपसर्गों के आने पर अकम्प और अडोल रहनेवाले, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, क्षिति के समान सर्व प्रकार को बाधाओं को सहनेवाले, उरग अर्थात् सर्प के समान दूसरे के बनाये हुए अनियत आश्रयवसतिका आदि में ठहरने वाले, अम्बर अर्थात् आकाश के समान निरालम्बी या निर्लेप और सदाकाल परमपद अर्थात् मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु , होते हैं।'
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांचों में सकल दुःख क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं वे साधु कहलाते हैं। जैसे बाण बनाने वाला पुरुष नेत्रों को किञ्चित बन्द करके देखकर बाण को सीधा और सरल बनाता है वैसे ही मन को एकाग्र करके साधु को आत्मतत्त्व का चिन्तन करना चाहिए ।३।।
वीतरागः-जिनका रागभाव विनष्ट हो चुका है उन्हें वीतराग कहते हैं । भवन्तः-सर्व कल्याणों को प्राप्त मुनि भदन्त कहलाते हैं । बान्तः-पाँच इन्द्रियों का निग्रह करने वाला दान्त है।
अनगार के उपयुक्त पर्यायवाची नामों के अतिरिक्त भी जैन और बैनेतर साहित्य में भिक्षु, योगी, निर्ग्रन्थ, क्षपणक, माहण, निश्चेल, दिग्वास, वातवसन, विवसन, आर्य तथा अकच्छ ( लंगोटी रहित ) आदि शब्द भी जैन मुनि को लक्ष्य करके व्यवहृत हुए मिलते हैं। १. सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सुरुवहि-मंदरिंदु-मणी । खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विमग्गया साह ।।
-धवला टीका १३११ गाथा ३३ पृ० ५.. २. दशवै० भाष्य गाथा १, दशवै० हारिभद्रीय टीका पत्र ६३. ३. मूल चार १०१८२. ४. (क) वोतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागाः-मूलाचार वृत्ति ९।१२०. (ख) वीतोऽपगतो रागः संक्लेश परिणामो यस्मादसौ वीतरागः।
___ ल. सार ३०४. जी० प्ररुपणा, पृष्ठ ३८४, ५. भदंता:सर्वकल्याणानि प्राप्तवंतः-मूलाचार वृत्ति ९।१२०. ६. दान्ता : पंचेन्द्रियाणां निग्रहपरा:-वही। ७. भ० महावीर और उनका तत्वदर्शन (सम्पा० आ० देशभूषण) ५० ६६६
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