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श्रमण संघ : ३८९ तीन गुप्तियों से सुरक्षित है, अट्ठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तरगणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।' जो सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र के योग से जो अपवर्ग (मोक्ष) को साधते हैं वे साधु कहलाते हैं । २ द्रव्यसंग्रह के अनुसार जो दर्शन एवं ज्ञान से समग्र (पूर्ण) मोक्ष के मार्ग स्वरूप एवं नित्य शुद्ध चारित्र की साधना करते हैं, वे साधु हैं । नियमसार में कहा है जो बाह्य व्यापारों से मुक्त है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं में सदा लीन रहते हैं, वे परिग्रहरहित एवं निर्मोही साधु हैं। मूलाचार के अनुसार भिक्षा, वाक्य, हृदय शुद्धि अर्थात् आहार, वचन और मन-इनकी शुद्धियों से युक्त, नित्य चारित्र में सुस्थित को जिनशासन में साधु कहा है। क्योंकि परिग्रह और कलत्र इन दोनों के त्याग से साधु शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।'
प्रवचनसार में कहा है कि साधु आगमचक्षु है अर्थात् साधु आगमचक्षु से निरखकर अपनी चर्या करते हैं। अतः आगम ज्ञान की महिमा को जानकर श्रमण को सब कुछ आगमचक्षु से ही देखना चाहिए। ज्ञानरूपी नेत्र को प्राप्त करने वाले साधु ज्ञान प्रकाश से सर्वलोक के सारभूत परमार्थ (आत्मस्वरूप) के ज्ञाता-दृष्टा होते हैं । नि शंकित, निविचिकित्सा और आत्मबल के अनुकूल पराक्रम (उत्साह) को धारण करते हैं।' तप्त लोहे से उत्पन्न चिनगारियों के सदृश दुर्जनों के वचनों तथा पैशून्य (दोषारोपणादि) रूप शस्त्र प्रहारों को सहन करते हुए क्षमागुण की महत्ता को जानने वाले वे साधु महर्षि किसी पर क्रोध नहीं करते । धवला टीका में साधु के महान् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कहा है कि साधु सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह
१. षट्खण्डागम धवला टोका १३१११ प्रथम पुस्तक पृष्ठ ५२. २. साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवमिति साधवः ।
-दशवकालिक नियुक्ति गाथा १४६. ३. द्रव्य संग्रह ५४. ४. नियमसार ७५. ५. ""सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहु । मूलाचार १०॥११३. ६. मूलाचार १०१११५. ७. आगमचक्खू साहू-प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति २३४. ८. मूलाचार ९।६२. ९. वही ९।१०१.
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