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३८८ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
उपयुक्त श्रमण धारण और ग्रहण में समर्थ, सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के परमार्थ को जाननेवाले, अवधि और मनःपर्ययज्ञानी, सात ऋद्धियों से सम्पन्न तथा धोर
संयत :-अनगार के पर्यायवाची में 'संयत' विशेषण का बहुतायत प्रयोग जैन साहित्य में मिलता है । कषाय रहित होना चारित्र है इस दृष्टि से जिस समय जीव उपशान्त (व्रत में स्थित तथा कषायरहित) हो जाता है उसी समय वह 'संयत (चारित्रयुक्त) हो जाता है तथा कषाय के वशीभूत जोव असंयत हो जाता है । अतः चारित्रादि अनुष्ठान में निष्ठ रहने वाला संयत कहलाता है । धवला के अनुसार ‘सम्' अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार जो बहिरंग तथा अंतरंग आस्रवों से विरत है उन्हें संयत कहते हैं ।
संयत दो प्रकार के होते हैं-प्रमत्त और अप्रमत्त । सभी मूलगुणों और शीलों (उत्तरगुणों) से युक्त अर्थात् महाव्रती होते हुए भी जो व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद पूर्वक रहता है अत: चित्रल आचारवाला होने से वह प्रमत्तसंयत कहलाता है। तथा जो व्यक्त-अव्यक्त सभी प्रमादों से रहित महाव्रत, मूलगुण
और उत्तरगुण से मण्डित, स्व-पर के ज्ञान से युक्त और कषायों का अनुपशामक (अक्षपक) होते हुए भी ध्यान में निरन्तर लोन रहने वाला संयत अप्रमत्त-संयत कहलाता है ।" संयत को विरत भी कहा जाता है। ___ साधु :-निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति कराने वाले मूलगुणादिक एवं तपश्चरणादि योगों को जो साधु सर्वकाल अपनी आत्मा से जोड़े अर्थात् आत्मा को उनसे युक्त करे और सभी जीवों पर समता भाव रखे वह साधु कहलाता है । षट्खण्डागम की धवला टीका में कहा है कि जो अनंत ज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं उन्हें साधु कहते हैं। जो पांच महाव्रतों को धारण करते हैं१. धारणगहणसमत्था पदाणुसारोय बीयबुद्धीय ।
संभिण्णकोट्ठबुद्धी सुयसागरपारया धीरा ॥ मूलाचार ९।६५-६६ वृत्तिसहित २. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि ।
उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि ।। मूलाचार १०९१ ३. संयतं चरित्राद्यनुष्ठानतन्निष्ठम् । मूलाचार वृत्ति ७।९८. ४. धवला १११, १, १२३ पृ० ३६९. ५. पचसंग्रह गाथा १११४. ६. वही, १।१६. ७. णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साघवो ।
समा सव्वेसु भूदेसु तह्मा ते सव्वसाधवो ॥ मूलाचार ७११.
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