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श्रमण संघ : ३८७
श्रमण के प्रकार :-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों की अपेक्षा से श्रमण चार प्रकार के बताये गये हैं। किसी वस्तु का "श्रमण' यह नाम रखना नामश्रमण है । काष्ठ, धातु आदि से श्रमण की आकृति बनाकर उसमें श्रमणत्व की स्थापना करना स्थापना श्रमण है । गुणरहित श्रमणवेश धारण करना द्रव्य श्रमण है। तथा मूलगुण एवं उत्तरगुण के पालन में तत्पर रहना भावश्रमण है । इन चारों में भावश्रमण ही सच्चे श्रमण है, क्योंकि ये ही बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित निरारम्भी तथा भाव से सुसंयत होते हैं। ___बुद्धि के चार भेद हैं-पदानुसारी बुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नबुद्धि और कोष्ठबुद्धि । बुद्धि के इन भेदों के आधार पर श्रमण के भी चार भेद है
१. पदानुसारोबुद्धि श्रमण-द्वादशांग और चौदह पूर्वी में से एक पद प्राप्त करके उसके अनुसरण से संपूर्ण श्रुत जानने वाले श्रमण ।
२. बीजबुद्धि श्रमण-सम्पूर्ण श्रुत में से एक बीज-प्रधान अक्षरादि के माध्यम से सम्पूर्ण श्रुत जानने वाले श्रमण ।
३. संभिन्नबुद्धि श्रमण-जिसके समक्ष किसी के द्वारा कुछ भी पढ़ा या कहा जाय वह सब पूरा का पूरा उसी तरह ग्रहण करके कह देने वाला श्रमण । चाहे चक्रवर्ती के बड़े सैन्य के बीच कोई वृत्त-आर्या, मात्रा, श्लोक, द्विपद, दंडकादिक पढ़ा जाये या गायनादिक गाया जाय, अथवा यदि वहाँ घोड़ा, बैल, हाथी आदि के जैसे शब्द होंगे अथवा जहाँ कहीं भी जैसे शब्द सुनेगा उन सबको वैसा ही कहने वाला संभिन्न बुद्धि वाला कहलाता है ।
४. कोष्ठबुदिध श्रमण-जैसे अन्नागार में संकर-व्यतिकर रहित विभिन्न प्रकार के धान्यादि बीज बहुत काल तक रखे रहने पर भी नष्ट नहीं होते, और न न्यूनाधिक होते हैं, वैसे ही जिसका वर्ण-पद-वाक्य रूप श्रुतज्ञान बहुत काल जोतने पर भी न नष्ट होता है और न न्यूनाधिक होता है अपितु सम्पूर्ण ही बना रहता है वह कोष्ठबुद्धि श्रमण है । १. णामेण जहा समणो ठावणिए तह य दम्वभावेण ।
णिक्खेवो वीह तहा चदुविहो होइ गायव्यो । मूलाचार १०।११०. २. वही वृत्ति १०।११०. ३. गुण रहित लिंग-ग्रहणं द्रव्यश्रमणो, मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानप्रवणभावो भाव
श्रमणः -मूलाचार वृत्ति १०१११०. ४. वही १०११११.
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