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________________ ३८६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चरित्रहीन श्रमण से श्रेष्ठ माना गया है ।" वस्तुतः अन्तरंग में वैराग्य उत्पन्न होने और बहुत समय से दीक्षित होने में कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । क्योंकि दीक्षित होने में वर्ष गणना नहीं करना चाहिए। मुक्ति के कारण में वर्षों की गिनती ( बहुत काल से दीक्षित होना) किसी काम की नहीं । क्योंकि बहुत से मुनि तो तीन रात्रि मात्र तथा कुछ अन्तर्मुहूर्त मात्र में ही वैराग्य-परायण होकर सिद्ध गति प्राप्त कर लेते हैं । रयणसार में ठीक ही कहा है कि वैराग्य के बिना सही अर्थों में त्याग हो ही नहीं सकता । वैराग्यपूर्वक सम्यक् चारित्राचरण सार्थक माना जाता है । इसकी प्राप्ति के निम्न सूत्र हैं— कृत्, कारित और अनुमति रहित भिक्षाग्रहण, अरण्यवास, प्रमाणयुक्त स्वल्पाहार, बहुत न बोलना, दुःखसहन करना, निद्रा जीतना, मैत्रीभाव और वैराग्य को अच्छे मन से धारण करना, अव्यवहारी (लोकव्यवहार रहित ) होना, एकत्व भावना और ध्यान में मन एकाग्र रखना, आरम्भ, कषाय, परिग्रह - इनसे रहित होना तथा अप्रमत्तभाव से किसी का संग न करना ४ – ये सूत्र समस्त प्रवचन के सारभूत तथा वैराग्य रूप समय ( आत्मा ) के सार हैं ।" जो भाव ( अन्तरंग ) से विरक्त होता है वही सच्चा विरक्त है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है कि जो साधु वैराग्य में तत्पर होता है वह परद्रव्य से पराङ्मुख रहता है और जो साधु संसार सुख से विरक्त रहता है वह स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त होता है । ६ इस प्रकार श्रामण्य को सच्ची सफलता निरन्तर वैराग्य को बढ़ाते हुए मोक्ष प्राप्त करने में है । क्योंकि श्रामण्य का आचरण करते हुए भी जिसकी कषायें उत्कट होती हैं, उसका श्रामण्य गन्ने ( इक्ष) के पुष्प की तरह निष्फल मानना चाहिए । अतः 'मैं बहुत वर्षों से दीक्षित हूँ' - इस तरह वर्षों की गणना मत करो क्योंकि यहाँ वर्षं नहीं गिने जाते । वर्षों की गणना मुक्ति का कारण नहीं है । - १. मूलाचार १०६. २. मा होह वासगणणा ण तत्थ वासाणि परिगणिज्जंति । बहवो तिरत्तवत्था सिद्धा धीरा विरग्गपरा समणा । मूलाचार १०।७४. वारिआ भणिदा - रयणसार ७१. ३. णो चागो वेरग्ग विणा ४. मलाचार १०१४- ५. 3. सर्वस्य प्रवचनस्य सारभूतमेतदिति - मूलाचार वृत्ति १०।४. ६. वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो य सो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥ मोक्खपाहुड १०१. ७. सामन्नमणु चरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुकुप्फं व निष्फलं तस्स सामन्नं ॥ चंदगवेज्झं गाथा १४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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