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________________ .... , श्रमण संघ : ३८५ शत्रु और बन्धु-बान्धवों में समान है। निंदा और प्रशंसा में समान है। पाषाण और स्वर्ण में समान हैं तथा जीवन और मरण में समान है वही श्रमण है।' जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है वह वास्तव में श्रमण है। आ० कुन्दकुन्द ने कहा है-णच्चदि गायदि न सो समो-जो नाचने-गाने अर्थात् सांसरिक आनन्द भोग आदि क्रियाओं में रमा रहता है वह श्रमण नहीं हो सकता।' इन्होंने भाव प्राभृत में कहा है "भावेण य णिम्ममा समणा" अर्थात् श्रमण भाव से निर्मम होता है। जिसका मनोयोग शुभ हो वह श्रमण-समण-सुमन-प्रशस्त मन वाला कहलाता । श्रमण शब्द जैन मुनि की कठोर तपस्या का प्रतीक माना गया है।" नयचक्र में चारित्र के अन्तर्गत श्रमण का लक्षण कहा है कि जो दर्शन-विशुद्धि, मूल एवं उत्तरगुणों से संयुक्त, सुख-दुख में समभाव रखने वाला तथा आत्मध्यान में लीन रहने वाला श्रमण कहलाता है । चारित्र की दृष्टि से श्रमण के सराग चारित्र और वीतराग चारित्र ये दो भेद है । अशुभ राग से रहित, व्रतादिक शुभराग से संयुक्त श्रमण सराग चारित्रघारी और अशुभ तथा शुभ दोनों प्रकार के राग से रहित श्रमण वीतराग चारित्रघारी कहलाता है। श्रमण जीवन में वैराग्य की महत्ता :-श्रमण बिना वैराग्य धारण किये बना ही नहीं जा सकता क्योंकि इस जीवन में वैराग्य को मुख्य भूमिका और महत्ता होती है । रागादि भावों से मुक्त, शरीर संस्कार एवं भोगादि सांसारिक विषयों से विरक्त होना वैराग्य है । धैर्य और वैराग्य में तत्पर श्रमण अल्प (स्फुट) सामायिक आदि स्वरूप का सम्यक् अवधारण करके अर्थात् सामायिकादि का थोड़ा सा स्वरूप पढ़कर भी कर्मक्षय कर सकते हैं, किन्तु सब शास्त्र पढ़कर भी वैराग्यहीन श्रमण कर्मक्षय करने में समर्थ नहीं हो सकता।' यथार्थ चारित्र का पालन करने वाला थोड़ा शिक्षित (अल्पज्ञ) श्रमण भी बहुश्रुत किन्तु १. समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोठ्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो । प्रवचनसार ३।४१. २. समे य जे सव्व पाणभूयेसु, से हु समणे-प्रश्न व्याकरण । २१५. ३. लिङ्ग पाहुड ४-२१. ४. भाव पाहुड १०५. ५क. श्राम्यंतीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः-दशवै हारिभद्रीय वृत्ति १।३. पत्र ६८. ख. श्राम्यन्त्यात्मानं तपोभिरिति श्रमणाः-मूलाचारवृत्ति ९।१२०. ६. नयचक्र ३३०. ७. नयचक्र ३३१. . ८. मूलाचार सहित वृत्ति १०॥३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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