SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ : मुलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार महान् गुणों से युक्त विविध शास्त्रों के सारभूत ये उपयुक्त दस अनगार भावना के दस सूत्र हैं । जो उद्योगशील संयत इस चर्याविधान और संयम राशि को अपने उपयोग को लगाये रखता है वह ज्ञान, दर्शन और मूलगणों की सम्पूर्णता को धारण करके उत्तम स्थान को प्राप्त करता है।' अनगार के पर्यायवाची दस नाम-श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतरागी. अनगार, भदन्त, दान्त और यति-ये दस अनगार के ही पर्यायवाची नाम हैं। इनमें से ऋषि, मुनि, यति और अनगार का स्वरूप विवेचन चातुर्वर्ण्य संघ के प्रसंग में किया जा चुका है। अनगार के शेष नामों का स्वरूप वर्णन प्रस्तुत है श्रमण :-श्रमण शब्द बहुत प्राचीन और व्यापक है । अनेकों जैनेतर शास्त्रों में श्रमण शब्द से जैन मुनियों का उल्लेख किया गया है।' श्रमण शब्द का अर्थ है जो श्रम अर्थात् तपश्चरण करते हैं। समत्व की साधना अथवा जो श्रम अर्थात् तपःसाधना करता है, तप से शरीर को खेद-खिन्न करता है वह श्रमण है।' श्रमण शब्द की निष्पत्ति श्रम धातु से हुई है । श्रमयति आत्मानं तपसि असौ श्रमणः -इस विग्रह के अनुसार जो व्यक्ति अपने को तप में लगा दे वह श्रमण है। वटकेर ने ऐसे मुनिर्यों को 'उद्यमशील' श्रमण कहा है । और ऐसा ही श्रमण यथाविधि चर्या विधान द्वारा ज्ञान गुण से संयुक्त होता हुआ संयमराशि को ग्रहण करता है और वही दर्शन एवं ज्ञान से परिपूर्ण होकर उत्तमस्थान ( मोक्ष ) प्राप्त करता है। जो आत्मा और परमात्मा के लिए श्रम करे वह श्रमण है। श्राम्यन्तीति श्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः-जो अपने श्रम से तपःसाधना के महापथ पर बढ़ते हुए मुक्तिलाभ करते हैं उन्हें श्रमण कहा जाता है। प्रवचनसार में कहा है जो १, मूलाचार ९।२, १२०, १२४. २. समणोत्ति संजदोत्ति य रिसि मुणि सात्ति वीदरागोत्ति । णामादि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंदोत्ति ॥ मूलाचार ९।१२०. ३. ऋग्वेद १०१९४।११, श्रीमद् भागवत १२।३ १८-१९, ५।३।२०, वृहदा रण्यक ४। ३।२२, तैत्ति० आराण्यक, २, ७, , शतपथ ब्राह्मण, १४. ७. १. २२, बौधायन, श्रौतसूत्र, १६, ३०, ४. श्राम्यंति तपस्यन्तीति श्रमणा मुनय : -मूलाचारवृत्ति ४२. ५. श्राम्यति-तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः-सूत्रकृताङ्ग १११६,१, आ० शीलांककृत टीकापत्र २६३. ६. मूलाचार ९।१२२, १२४. ७. दशवै० हारिभद्रीय टोका पत्र ६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy