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श्रमण संघ : ३८३
वचनों (आगम) द्वारा प्रतिपादित अर्थयुक्त उन कथाओं को कहते हैं जो कि समयोपचार (पथ्य) युक्त तथा परलोक हितकारी होती हैं ।।
९. तपः शुद्धि : पाँच महाव्रतों एवं पाँच समितियों के आचरण से युक्त, धीर, पचेन्द्रियों के विषय से विरक्त' श्रमण पंचमगति ( सिद्धगति ) के अन्वेषक तपः शुद्धि के स्वामी होते हैं । ३ वे पंचेन्द्रियों को रागभाव से कभी बँधने नहीं देते अपितु जैसे तीव्र उष्णता के प्रभाव से हल्दी द्वारा रंगे गये वस्त्रों का रंग नष्ट हो जाता है । वैसे ही सदाचार के प्रभाव से उनका रागभाव नष्ट हो जाता है ४ क्योंकि वे प्रमादपूर्ण आचरणों से सर्वथा रहित, संयम, समिति, ध्यान, योग, तप, चरण और करण-इनसे युक्त तथा पापों के शमन में तत्पर रहते हैं । तपः शुद्धि युक्त श्रमण नलिनी वन का भी विनाश करने वाली अत्यधिक हेमन्त ऋतु की ठण्ड और शरीर पर गिरने वाले हिमकणों को धैर्यपूर्वक सहते हैं । ग्रीष्म ऋतु में सर्वांग से उत्पन्न मल से मलिन तथा उष्ण किरणों से दग्ध अंगों से निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा में सूर्य की ओर मुख करके आतापन योग करते हैं। वर्षाऋतु में धारान्धकार से गहन, घोर गर्जना करने वाले तथा प्रवर्षणशील मेघों तथा प्रचण्ड हवा की बाधा सहन करते हुए अहर्निश मूसलाधार वर्षा में भी वृक्ष के मूल में ध्यानस्थ रहकर वृक्षमूलयोग करते हैं । कर्मों के क्षयार्थ बाईस परीषहों की वेदना तथा मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रयुक्त दुर्जन वचनों एवं विविध उपद्रवों को समतापूर्वक सहते हैं।"
१०. ध्यानशुद्धि : इन्द्रियरूपी अश्व राग-द्वेष से प्रेरित होकर धर्मध्यान रूपी रथ को उन्मार्ग की ओर न ले जायें अतः मनरूपी लगाम से दृढ़ करना, रागद्वेष और मोह को रत्नत्रय रूपी वृत्ति से जीतकर पंचेन्द्रियों को व्रत और उपवासों के प्रहारों से वश में करना तथा निर्मल ध्यान रूप शुद्धोपयोग में तत्पर होना ध्यानशुद्धि है । जैसे वृक्ष को मूल से उखाड़ देने पर पुनः उत्पन्न नहीं होता वैसे ही ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की मूलभूत इन कषायों को क्षमादि धर्मों के द्वारा क्षय करने से वे पुनः उत्पन्न नहीं होती । इन कषायों का क्षय होने पर तथा आतं और रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निविष्ट होना ही ध्यानशुद्धि है। १. मूलाचार ९।९२-९४ २. वही, ९।१०५. ३. वही, ९।१९६. ४. वही, ९।९६. ५. वही, ९।९७.१०१, १०३. ६. वही, ९।११३-११७.
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