________________
३८२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययनं
रहित होकर उपस्थित व्याधि और रोगों को धैर्यपूर्वक सहना उज्झन शुद्धि है । इसके लिए गृहस्थाश्रम के समय जिन इन्द्रिय विषय भोगों का उपभोग किया हो एवं विविध रतिक्रीड़ाओं, ऋद्धि तथा भोजनादिक भोगों का उपभोग किया हो उन सबका श्रमण जीवन में कभी स्मरण तक नहीं करना चाहिए ।"
८. वाक्य शुद्धि : विनयरहित भाषा, धर्म विरोधी वचनों एवं लौकिक कथाओं का वर्जन करके कलह, द्वेषादि भावयुक्त भाषण न करना, नेत्रों से सब कुछ देखते हुए एवं कानों से बहुविध शब्दों को सुनते हुए भी रहना वाक्यशुद्धि है । इसके अन्तर्गत जीवों के सन्ताप को इह-परलोक हितकारी, धर्ममयी, समयोपचार आगम और विनय ) युक्त तथा जिनोपदिष्ट तत्त्वार्थी की कथाओं का कथन करते हैं । ३ स्त्री, अर्थ, भक्त, (भोजन) खेट, ( चारों ओर नदी पर्वतों से घिरा हुआ देश) कवंट ( सर्वत्र पर्वतों से घिरा हुआ देश), राजा, चोर, जनपद, नगर, आकर, नट, भट (योद्धा), मल्ल, मायाकर, (जादूगर), जल्ल, (मछली, पक्षी आदि पकड़ने वाले) मुष्टिका (जुआड़ी) आर्याकुल, (दुर्गा आदि का आम्नाय अथवा बकरा आदि सभी पशु पालक ) लंधिका (वस्त्र, बांसुरी आदि में कुशल ) इत्यादि प्रकार की लौकिक तथा राग कथाओं में वे धीर श्रमण अनुरंजित नहीं होते । और न इन विकथाओं एवं विश्रुतियों (रत्नत्रय और तप के प्रतिकूल वचनों) का क्षण भर के लिए भी हृदय में चिन्तन करते हैं ।" कौत्कुच्च (कण्ठ और हृदय से अव्यक्त शब्द ), कंदर्पायित (कामोत्पादक भाषण ), हास्य, उल्लापन ( चातुर्यपूर्ण विविध भाषण ), खेड ( उत्पातपूर्ण वचन) और मददर्प ( अपने हाथ से दूसरे का हाथ मरोड़ना अर्थात् हस्त ताडन) आदि क्रियायें मुनि न स्वयं करते हैं, न दूसरों से कराते हैं। और ऐसा करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते । वे तो निर्विकार, स्तिमितमति श्रमण अपने नियमों और व्रतों में दृढ़ प्रतिज्ञ रहते हैं तथा जिन
1
१. मूलाचार ९७०, ८४, ७३-७४, ८५-८६. २. बही, ९।८७-८८ ।
३. वही, ९।९४ ।
४. इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकव्वडाणं च । रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ ॥ णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्ल मुट्ठियाणं च ।
अज्जउललंघियाणं कहासु ण वि रज्जए बीरा ॥ वही, ९।८९-९०.
५. नही, ९/९१.
Jain Education International
मूक के समान दूर करने वाली,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org