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श्रमण संघ : ३८१
करना चाहिए । विहारशुद्धि युक्त श्रमण उपेक्षावृद्धि, माध्यस्थभाव, उपशान्त, अदीन, निभृत, निराकांक्ष और अशठ - इन गुणों से युक्त, कामभोगों को सदा के लिए भूल जाने वाले तथा जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरक्त होते हैं ।' अनियतविहारी होते हुए भी वे ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर श्रुतज्ञानरूपी दीपक की सहायता से अगर्भवास (मोक्ष) की विशेष इच्छा रखते हुए वोतराग भावनाओं में निरत, ज्ञान-दर्शन - चारित्र - योग और वीर्य के साथ वैराग्य का चिन्तन करते रहते हैं ।
५. भिक्षा शुद्धि : भिक्षा शुद्धि का अर्थ है विधिपूर्वक विशुद्ध आहार ग्रहण करना अर्थात् औद्देशिक, क्रीत, अज्ञात, शंकित, अभिघट दोषयुक्त तथा आगमविरुद्ध एवं आगमनिषिद्ध आहार का पूर्णतः त्याग करना तथा मन, वचन, काय, एवं कृत, कारित और अनुमोदना रूप नव कोटियों से विशुद्ध, शंका- कांक्षादि दस दोषों और नख, रोमादि चौदह मलों से रहित ऐसे विशुद्ध आहार को परगृह में दूसरों अर्थात् श्रावकों के द्वारा दिये आहार को अपने पाणिपात्र में ग्रहण करना भिक्षाशुद्धि है । इसके अन्तर्गत अविवर्ण, प्रासुक, प्रशस्त और एषणा समिति से विशुद्ध आहार, नियत समय पर दिन में एक बार ही ग्रहण करना तथा आहार ग्रहण के बाद दोषों के नाशार्थ प्रतिक्रमण करना चाहिए ।
६. ज्ञानशुद्धि : ज्ञानरूपी दृष्टि को प्राप्त करके ज्ञान-प्रकाश से परमार्थ को देखना, निःशंकित, निर्विचिकित्सा और आत्मबल के अनुसार पराक्रम (उत्साह) को धारण करना ज्ञानशुद्धि युक्त अनगार के लक्षण है । ऐसे ही ज्ञान विषयक परमार्थ, अष्टांग निमित्त आदि के ज्ञाता श्रमण पदानुसारी बुद्धि, बीज बुद्धि, संभिन्न बुद्धि और कोष्ठ बुद्धि- - इन चार बुद्धियों से सम्पन्न, बारह अंग और चौदह पूर्व के धारण और ग्रहण में समर्थ तथा धीर होते हैं । "
७. उज्झन शुद्धि : उज्झन शुद्धि से तात्पर्य शरीर संस्कार का त्याग करके अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव से रहित होना है । बन्धु बान्धवों के प्रति तथा अपने नाशवान् शरीर के प्रति स्नेह और राग रहित होना उज्ज्ञन शुद्धि है । शरीर में रोग आदि उत्पन्न होने पर मन को खेद - खिन्न, विकल तथा आकुल न करके औषधि या चिकित्सा की इच्छा न करना और शरीर के विषय में प्रतिकार
१. मूलाचार ९।३७-३९.
२. वही, ९१४१-४२.
३. वही, ९।४६-४५. ४. वही, ९१५५, ६१, ५३. ५. वही, ९६२, ६५-६६.
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