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________________ ३८० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन जिनवरवृषभ एवं वर्धमान आदि के घर्मतीर्थ पर ही त्रिविध श्रद्धान करते हैं, अन्य घर्मतीर्थों पर नहीं ।' २. व्रतशुद्धि: पापों से विरक्त होना व्रत है । वृत्तिकरण, छादन, संवर और विरति - ये सब 'व्रत' के पर्यायवाची नाम हैं । वैराग्ययुक्त श्रमण द्वारा प्राणिवध, मृषावाद आदि पाँच पापों का मन, वचन, काय से त्याग करके अहिंसा, सत्यभाषण, आदि पाँच महाव्रतों का धारण करना व्रतशुद्धि है ।" ३. वसतिशुद्धि : सामान्यतः श्रमण नगर में पाँच दिन और ग्राम में एक रात्रि ठहरते हैं । जब वे विहार करते हैं उस समय गृह आदि आश्रयस्थल की अपेक्षा उन्हें नहीं होती, जहाँ सूर्यास्त होता है वहीं प्रासुक स्थान में निर्भयता पूर्वक ठहर जाते हैं । चाहे वह स्थल जल से विदीर्ण, पर्वत की गुफा कन्दरा, शून्यघर, श्मशान आदि भले ही हो, पर वह प्रासुक, एकाकी और विकलता रहित स्थल होना चाहिए । भ्रमण सदा प्रासुक प्रदेश में विहार करते हैं तथा स्त्री पुरुषादि से वर्जित एकान्त स्थलों में ही निवास करते हैं । ऐसे स्थलों के अन्वेषण में वे गन्धहस्त के सदृश धीर होते हैं तथा शुक्लध्यान में रत रहकर मुक्ति रूप उत्तम सुख प्राप्त करते हैं । वसतिकाओं से अप्रतिबद्ध रहना ही वसति शुद्धि है । इसी के द्वारा वे उपर्युक्त स्थलों में रहते हुए वीर प्रभु के वचनों में क्रीड़ा करते हैं । ४ ४. विहारशुद्धि : श्रमण अनियत विहारी होते हैं । क्योंकि एक स्थल पर बहुत समय तक रहने से प्रमाद और आलस्य में वृद्धि होती हैं । गृहस्थों आदि से स्नेह-परिचय हो जाता है, इससे संयम में शिथिलता आती । जबकि ग्रामानुग्राम विहार से निर्लेपता और सहनशीलता बनी रहती है निरपेक्ष और स्वच्छंद रूप में नगर और खानों आदि से सर्वत्र बहती है वैसे ही श्रमण सभी तरह के परिग्रहों स्वतंत्ररूप में विचरण करते हैं ।" विहार शुद्धि में यह भी ज्ञान-दर्शन- चारित्र में वृद्धि हो अर्थात् विशुद्ध संयम का से १. मूलाचार ९।१०. २. णाऊण अब्भुवेच्चय पाषाणं विरमणं वदं होई । विदिकरणं छादणं संवरी विरदित्ति एगट्ठो ।। ३. मूलाचार ९।१२-१४. ४. वही ९।१८-२२. ५. मूलाचार ९ । ३१. Jain Education International अतः जैसे हवा मुक्त, विभूषित पृथ्वी पर मुक्त, निरपेक्ष एवं आवश्यक है कि जहाँ पालन हो वहीं विहार - भ० आ० वि० टी० ४२१, ५० ६१४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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