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श्रमण संघ : ३७
अनगार भावना के दस सूत्र:
एक सच्चे अनगार को जिन शुद्धियों का निरन्तर ध्यान रखने, उनकी भावना भाते रहने और आचरण में लाने का विधान है, अनगार भावना के वे दस सूत्र' निम्नलिखित है
१. लिंगशुद्धि : लिंग का अर्थ है चिह्न । विशुद्ध निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करके तदनुरूप आचरण करना अनगार भावना का प्रथम सूत्र है। दूसरे शब्दों में शरीर के संस्कार जैसे-स्नान, आदि . सबका पूर्ण त्याग करके पूर्ण नग्नता धारण करना, केशलोंच करना, संयमार्थ हाथ में पिच्छि रखना, रत्नत्रय एवं तप का आचरण करना लिंगशुद्धि है । वस्तुतः संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु और'मैं साधू हूँ' इसका बोध करने के लिए लोक में लिंग (वेष धारण) का प्रयोजन है।३ भावों की विशुद्धि के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है । वह द्रव्यलिंग है तथा देह की ममता से रहित, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है वही स्वात्मा में लीन श्रमण भावलिंगो है । इस प्रकार मूर्छा, आरम्भ और परापेक्षा रहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त लिंगशुद्धि मोक्ष का कारणभूत होती है।
लिंग के चार भेद हैं-अचेलकत्व, केशलोंच, शरीर-संस्कार का त्याग और प्रतिलेखन ।' इनमें अचेलकत्व निःसंगता का चिह्न है, लोच से सद्भाव ज्ञात होता है, व्युत्सृष्टदेहत्व वीतरागता का चिह्न है तथा प्रतिलेखन दयापालन का चिह्न है । लिंगशुद्धि युक्त दृढ़बुद्धि वाले श्रमण तपों में उत्साहयुक्त, कर्मक्षय में तत्पर एवं भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित परमार्थ में सदा अनुरक्त रहते हैं।' जन्ममरण से उद्विग्न, संसारवास एवं उसके दुःखों से भयभीत रहते हुए
१. लिंगं वदं च सुद्धी वसदिविहारं च भिक्ख णाणं च ।
उज्झणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं ।। मूलाचार ९।३. २. मूलाचारवृत्ति ९।३. ३. उत्तराध्ययन २३।३२. ४. भावपाहुड ३१५६. ५. मुच्छारं भविजुत्तं जुत्तं उपजोगजोगसुद्धीहि ।
लिंगं ण परावेक्खं अवुणभवकारणं जेण्हं । समयसार २०६. ६. अच्चेलक्कं लोचो बोसट्ट सरीरदा य पडिलिहणं ।
एसो हुए लिंग कप्पो चदुविधो होदि णायम्वो ॥ मूलाचार १०।१७. ७. मूलाचारवृत्ति, १०।१७. ८. मूलाचार ९।११.
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