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३७८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
. ३. यति---इन्द्रियजय द्वारा शुद्धात्म-स्वरूप के प्रयत्न में तत्पर रहने वाला यति कहलाता है।' जो तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करते हैं अथवा उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी में आरोहण करने में तत्पर 'यति' कहे जाते हैं।
४. अनगार-सामान्य साधु को अनगार कहते हैं । अगार अर्थात् गृह, स्त्री इत्यादि-इन सबका त्याग करने वाला सामान्य श्रमण अनगार कहलाता है। उपभोगित पुष्पों की तरह धन, पशु, कनक आदि समृद्धि एवं बन्धु-बान्धवों को छोड़कर जो व्यक्ति घर में रहने की कामना से पूर्ण विरक्त हो जाते हैं वे वीर पुरुष अनगार कहलाते हैं । जिन संयोगों में गृहस्थ उलझ जाते हैं उन सबका गृहत्यागो एवं प्रवजित अनगार ज्ञान द्वारा त्याग कर देते हैं, क्योंकि गृहस्थ जीवन राग-द्वेष एवं आरम्भादि को उत्पन्न करने वाला होता है। वह मृत्युपर्यन्त अपरिग्रही, निदानरहित और शरीर की ममता को छोड़कर शुक्लध्यान का ध्याता बनता है । ममत्व, अहंकार एवं आश्रव से रहित होकर वह अनगार केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
अनगार अवस्था धारण करने की अपनी एक प्रक्रिया है। सीधे एक साथ ही कोई अनगार नहीं बन जाता। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोषवास, सचित्तत्याग, रात्रिभोजनत्याग, ब्रह्मचर्यव्रत, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग-श्रावक की ये ग्यारह प्रतिमायें अनगार अवस्था तक पहुंचने की सीढ़ियां है। ये हो श्रावक को क्रमशः आत्मोन्नति को सूचक है । ग्यारहवीं प्रतिमा में पहुँचते-पहुँचते वह लंगोटीमात्र का घारी (ऐलक) बनकर आगे अनगार बनने का पूर्ण अभ्यास कर लेता है तब कहीं अनगार दीक्षा उसे दी जा सकती है। मुमुक्षु श्रावक में जब वैराग्य उत्पन्न होता है तब वह इन ग्यारह प्रतिमाओं आदि को धारण करके श्रमण संघ में रहकर भी पूर्ण ब्रह्मचर्य, क्षुल्लक तथा ऐलक आदि अवस्थाओं में पूर्ण अभ्यस्त होकर अनगार के:सर्वथा योग्य बन जाता है, तब कहीं उसकी योग्यता की परीक्षा लेकर उसे चतुःसंघ के समक्ष विधि-पूर्वक दीक्षा द्वारा अनगार बनाते हैं।
१. इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रयत्नपरो यतिः--प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति ६९. २. त्रयोदशविधे चारित्रे यतन्त इति यतयोऽथवोपशमक्षपकश्रेण्यारोहणपरा यतयः
-मूलाचारवृत्ति ९।१२०. ३. अनगाराः सामान्य साधवः-प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति २४९. ४. न विद्यतेऽगारं गृहं स्त्र्यादिकं येषां ते अनगाराः-मूलाचारवृत्ति ९।२. ५. मूलाचार ९८
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