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श्रमण-संघ : ३७७
सम्पूर्ण कर्मों का विनाश करने वाले महर्षि हैं।' राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि के भेद से ऋषि के चार भेद हैं, जिनका स्वरूप विवेचन पहले किया जा चुका है।
२. मुनि-ज्ञान की आराधना-मनन करने वाला 'मुनि' कहलाता है। इस प्रकार मनन मात्र भावस्वरूप होने वाला मुनि होता है। जो स्व-पर के अर्थ (प्रयोजन) सिद्धि (सर्वार्थसिद्धि) को जानते और मानते हैं वे मुनि हैं अथवा मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान से युक्त मुनि कहलाते हैं । आप्तविद्या (आगम) में वृद्ध और मान्य होने से महापुरुषों में 'मुनि' संज्ञा प्रसिद्ध है।" मननात् मुनिः-इस व्युत्पत्ति के आधार पर जो आत्मा का मनन करे वह मुनि है ।
आचारांग सूत्र में मुनि-जीवन की स्थिरता के सुन्दर सात सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है
१. आज्ञाप्रियता--अर्थात् ज्ञान और उपदेश । २. स्नेह-मुक्ति।
३. पूर्वरात्र (रात्रि के प्रथम दो प्रहर) तथा अपररात्र (रात्रि के शेष दो प्रहर) में यतना अर्थात् दो या तीन प्रहरों में जागृत रहकर ध्यान और स्वाध्याय करना, अप्रमत्त रहना 'यतना' है।
४. शील-संप्रेक्षा--महाव्रतों का अनुशीलन, इंद्रियों का संयम, मन, वाणी और काय की स्थिरता, क्रोध, मान, माया और लोभ का निग्रह। यह शील है तथा इसका सतत् दर्शन-शील-संप्रेक्षा' है।
५. लोकसार का श्रवण अर्थात् लोक में सारभूत तत्त्व-ज्ञान-दर्शन और चारित्र का श्रवण ।
६. कामना का परित्याग । ७. कलह का परित्याग ।
१. एवं णियाय मुणिणा पवेदितं-इह आणाकंखी पंडिए अणि हे, पुव्वावररायं
जयमाणे, सया सीलं खंपेहाए, सुणिया भवे अकामे अझंझे । -आयारो-पंचम लोकसार अध्ययन तृतीय उद्देशक सूत्र ४४ तथा टिप्पण
पृ० २१३-२१४. १. मूलाचार ९।११५. २. नाणेण उ मुणी होई-सूत्रकृतांग १।१३।२२.
मननमात्रभावतया मुनिः-समयसार-आत्मख्याति १५१. ४. मूलाचार वृत्ति ९।१२०. ५. मान्यत्वादाप्तविधानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः--यशस्तिलक चम्पू ८।४४,
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