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________________ ३७६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन गणधर का धर्म है--शास्त्र परम्परा को अविच्छिन्न रखना।' - श्वेताम्बर परम्परा में गणावच्छेदक नाम से एक अन्य पद का भी उल्लेख मिलता है। गण के एक विभाग के जो स्वामी हों तथा जो गण के कार्यों में उद्यत रहते हों वे गणावच्छेदक कहलाते हैं। कहा भी है-जिनशासन की प्रभावना करने में गण के हित के लिए दूर के क्षेत्र में भी जाने में और क्षेत्र (ग्राम आदि योग्य स्थान) और उपधि की गवेषणा करने में खिन्न न होने वाले तथा सूत्र-अर्थ के ज्ञाता गणावच्छेदक कहलाते हैं। इस तरह आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर-ये संघ के पाँच आधार हैं। ये सभी जिस संघ में होते हैं उसमें सुव्यवस्था के साथ ही व्यक्तित्व के विकास के सभी साधन भी उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार श्रमण संघ के अन्तर्गत कार्य-विभाजन की दृष्टि से आचार्य का कार्य सूत्र के अर्थ की वाचना देना और संघ का सर्वोपरि संचालन एवं मार्गदर्शन करना है। उपाध्याय का कार्य सूत्र की वाचना देना, शिक्षा की वृद्धि करना है। प्रवर्तक का कार्य है संव का प्रवर्तन करना तथा अपने आचार्य द्वारा बताई हुई धार्मिक प्रवृत्तियों में, सेवा आदि कार्यों में श्रमणों को नियुक्त करना । स्थविर का कार्य श्रमणों को संयम में स्थिर करना, श्रमणधर्म (श्रामण्य) में विचलित हुए मुनियों को पुनः स्थिर करना। उनकी आन्तरिक और बाह्य समस्याओं के समाधान की व्यवस्था करना है । तथा गणधर का कार्य है श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखना और अपने धर्म की प्रभावना करना । संघ के ये पाँच आधार कार्य विभाजन के आधार पर आधारित हैं। चातुर्वर्ण्यसंघ ___ ऋषि, मुनि, यति और अनगार-ये चार प्रकार के श्रमण चातुर्वर्ण्य संघ के अन्तर्गत आते हैं । क्रमशः इनका स्वरूप इस प्रकार हैं १. ऋषि-ऋद्धि प्राप्त श्रमण ऋषि कहलाते हैं। इन्द्रियों को जीतने वाले, रागद्वेष और मोह का क्षय करके ध्यान रूप शुद्धोपयोग में युक्त रहकर १. उत्तराध्ययनसूत्र बृहद् वृत्ति, पत्र, ५८४. २. (क) गणस्य अवच्छेदः-विभागः अंशोऽस्ति यस्यासौ तथा, गणकांशस्वामी । कल्पसूत्र कल्पमंजरी टीका पृष्ठ ५०. (ख) पभावणुद्धावणेसु खेतोवज्झेसणासु य । अविसाई गणावच्छेयगो सुत्तत्थवी मओ ।। वही १ पृ० ५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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