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________________ श्रमण-संघ : ३७५ संघ में प्रवेश करने वाले साधु-साध्वियों को उनके धर्मानुकूल पवित्र आचार आदि की शिक्षा देना तथा उनके संयम-योग के नियमों-उपनियमों को स्थिर करना है।' कल्पसूत्र टीका में कहा है-मोक्षाभिलाषी, कोमल प्रकृति वाले और धर्मप्रिय किन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप उपादेय अर्थों से च्युत होने वाले और खेद का अनुभव करनेवाले मुनियों को अपने कर्तव्य का स्मरण कराकर और उनको इहलोक और परलोक सम्बन्धी हानियाँ बतलाकर संयमयोग में स्थिर करने वाले स्थविर कहलाते हैं। कहा भी है-संवेग (वैराग्य) से सम्पन्न, मृदुलहृदय, धर्मप्रिय होते हुए भी जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र में जिन अर्थों का परित्याग करने के लिए उद्यत हुए हैं उन साधुओं को उन अर्थों का जो स्मरण कराते हैं अर्थात् रत्नत्रय के परित्याग से होने वाली हानियाँ बतलाते हैं : वे स्थविर कहलाते हैं ।२ स्थविर पद पर भी वही प्रतिष्ठित हो सकता है जो श्रमण आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला, आचार, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह और उपग्रह में कुशल, अखंड चारित्रवाला, असबलदोषी, अभिन्नाचारी, असंक्लिष्ट चारित्रवाले, बहुश्रुत, विद्यागामी, स्थानांग और समवायांग सूत्र के ज्ञाता हों। स्थविर के अतिरिक्त उपर्युक्त गुण गणी, गच्छावच्छेदक आचार्य, उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी के लिए भी अपेक्षित माने गये हैं ।३ स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के स्थविरों का उल्लेख मिलता है-ग्राम, नगर, राष्ट्र, पार्श्वस्थ, कुल, गण, संघ, वय, श्रुत और दीक्षा स्थविर । ५. गणधर : जो गण को धारण करता है वह गणधर कहा जाता है।" जो आचार्य नहीं है किन्तु बुद्धि से आचार्य के सदृश हो और गुरु की आज्ञा से साधु-समूह को साथ लेकर पृथक् विचरता हो वह गणधर कहलाता है। १. आचारांग सूत्र (अभयदेव टीका) पृष्ठ ४८८. २. संविग्गो मद्दविओ प्रियधम्मो नाण-दसण-चारित्त । जे अढे परिहायइ, सारेंतो सो हवइ थेरो ॥१॥ --कल्पसूत्र (कल्पमञ्जरी टीका) पृ० ५२. ३. बृहत्कल्पसूत्र लघु भाष्य वृ० पृ० ६३. ४. स्थानांग सू० १०७६०. ५. गणं धरतीति गणधरः-मूलाचार वृत्ति ४।१५५. ६. आचार्य सदृशो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधर इति । तदुक्तम्-नो आयरिओ पुण जो, तारिसओ चेव होइ बुद्धीए । साहुगणं गहिऊणं वियरइ सो गणहरो होइ ॥ -कल्पसूत्र टीका सूत्र ६. पृ० ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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