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________________ ३७४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन विशेष अध्ययन हेतु शिष्य श्रमण एक संघ या गण से दूसरे संघ या गण आतेजाते थे । ऐसे श्रमणों को आगन्तुक श्रमण कहा जाता था। आयिकायें भी संघ में अपनी शंकाओं का समाधान और अध्ययन आचार्य और उपाध्याय से करती थीं। स तरह समस्त शास्त्रों के गहनतम अध्ययन-अध्यापन रूप शैक्षाणिक प्रवृत्तियां का श्रमण संघ में अपना एक विशिष्ट एवं आश्चर्यकारी महत्व रहा है । इसमें जहाँ संघ के आचार्य का सानिध्य तथा उनका मार्गदर्शन बहुत महत्व रखता है वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों में उपाध्याय की प्रमुख भूमिका रहती है । ३. प्रवर्तक : अल्पश्रुत का ज्ञाता होने पर भी जो संघ की सम्पूर्ण मर्यादा और चारित्र का ज्ञाता होता है, वह प्रवर्तक होता है। वसुनन्दि के अनुसार जो संघ का प्रवर्तन करते हैं वे प्रवर्तक कहलाते हैं।' __ उपाध्याय से ज्ञान में ये अल्प (लघु) होते हैं। किन्तु सर्वसंघ की मर्यादा के योग्य आचार का इन्हें विशेष ज्ञान होने से ये प्रवर्तक कहलाते हैं ।२ संघ का प्रवर्तन (संचालन) करने वाले श्रमण प्रवर्तक कहलाते हैं । ' कल्पसूत्र टीका में कहा गया है जो योग्य साधुओं को प्रशस्त योगों में प्रवृत्त करते हैं वे प्रवर्तक हैं । कहा भी है--जो योग्य मुनि को तप और संयम में प्रवृत्त करते हैं, और अयोग्य को हटाते हैं, इस प्रकार गण का कार्य करने वाले मुनि प्रवर्तक कहलाते हैं। संघ में प्रवर्तक का यह प्रमुण कर्तव्य होता है कि साधु-साध्वियों के जीवन में आचार-विचार को सम्यक व्यवस्था करे अथवा वैसी प्रवृत्ति जागृत करे तथा उसे वैसी ही शिक्षा देना चाहिए।" ४. स्थविर : चिरकाल से दीक्षित और मुनि-मार्ग के अनुभवी मुनिवर स्थविर मुनि हैं। वसुनन्दि के अनुसार जिनसे शिष्य के आचरण स्थिर होते हैं, वे स्थविर कहलाते हैं । आचारांगसूत्र टीका में कहा है कि स्थविर का कार्य १. प्रवर्तकः संघ प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः -मूला० वृत्ति ४.१५५. २. पवत्ती अल्पश्रु तः सन्सर्वसंघ मर्यादाचरितज्ञः प्रवर्तकः-भ० आ० मूलाराधना गाथा ६२९, पृ० ८३१ । ६३. संघ प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः -मूलाचार वृत्ति ४।१५५. ४. यः प्रशस्तयोगेषु योग्यान् साधून प्रवर्त्तयति अयोग्यांश्च निवर्तयति स प्रवर्तकः तदुक्तम् तवसंजमजोगेसु जोग्गं जो उ पवट्टए। निवट्टए अजोग्गं च गणचिती पवट्टगो ॥१॥ कल्पसूत्रटीका पृष्ठ ५३. ५ बृहत्कल्पसूत्र नियुक्ति लघु भाष्य वृ० प्रस्तावना पु० ६६. ६. यस्मात् स्थिराणि आचरणानि भवन्तीति स्थविरः-मूलाचार वृत्ति ४।१५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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