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श्रमण-संघ : ३७३ स्वाध्याय रूप इन द्वादशाङ्गों का अपने शिष्यों को जो उपदेश करता है, पढ़ाता है वह उपाध्याय कहलाता है।'
नियमसार में कहा है कि जो रत्नत्रय से युक्त, जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों का उपदेश करने में कुशल और आकांक्षा रहित होते हैं उन्हें उपाध्याय कहते हैं। धवला के अनुसार जो श्रमण चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित है तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों (श्रमणों) को उपदेश देते हैं वे श्रमण उपाध्याय कहलाते हैं । ये संग्रह और अनुग्रह गुणों को छोड़कर आचार्य के समस्त गुणों से युक्त होते हैं । द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं, नित्य धर्मोपदेशों में निरत है वह यतियों में श्रेष्ठ आत्मा उपाध्याय है ।
इसप्रकार उपाध्याय पद लिए शास्त्रों का विशेष अभ्यास ही प्रमुख कारण है क्योंकि जो स्वयं अध्ययन करता है और शिष्यों को भी अध्ययन कराता है वही गुरु उपाध्याय कहलाता है । इनमें ब्रत आदि के पालन की शेष विधि सभी श्रमणों के समान होती है।
इस तरह आचार्य एवं उपाध्याय के स्वरूप विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन श्रमण संघ एक प्रकार चलते फिरते गुरुकुल थे, जिनमें सत्-शास्त्रों का सांगोपांग अध्ययन चलता रहता था। केवल जैन शास्त्रों का ही अध्ययन होता हो यह बात नहीं थी अपितु साहित्य की विविध विधाओं से परिचित कराया जाता था । तभी तो वे अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा अन्य मतों से परीक्षापूर्वक कर पाते थे । मूलाचार में उल्लिखित कौटिल्य, महाभारत, रामायण और ऋग्वेदादि के नामों के उल्लेख से ग्रंथकार का बहुशास्त्रवेत्तृत्व गुण प्रकट होता है । उस समय और
१. (क) बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे ।
उवदेसइ सज्झायं तेणुवज्झाउ उच्चदि ॥ मूलाचार ७।१०, आवश्यक
नियुक्ति १०००. (ख) बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहे ।
तं उवइस्संति जम्हा, उवज्झाया तण वुच्चंति ॥ कल्पसूत्र कल्पमंजरी
टीका पृष्ठ ५०. २. नियमसार ७४. ३. धवला १११११ गाथा ३२ पृष्ठ ५१. ४. द्रव्यसंग्रह ५३. ५. पञ्चाध्यायी उत्तरार्द्ध ६६१-६६२. ६. मूलाचार ५।६१.
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