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________________ ३ [ ९ ] १५. व्यवहार के पाँच भेद : ३२६-३३० आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत १६. श्रमण और गृहस्थ तथा उनके परस्पर सम्बन्ध ३३० १७. श्रावक द्वारा आहारदान ३३२ १८. श्रमण के स्थितिकल्प ३३४ (क) कल्प के दो भेद : १. जिनकल्प, २. स्थविरकल्प ३३५ (ख) दस स्थितिकल्प ३३७-३४४ १९. वर्षावास ३४४ (क) वर्षावास का औचित्य (ख) वर्षायोग ग्रहण एवं उसकी समाप्ति विधि (ग) वर्षावास का समय ३४७ (घ) वर्षावास के योग्य स्थान ३४८ (ङ) वर्षावास में भी विहार करने के कारण ३४९ पंचम अध्याय : श्रमण संघ ३५३-४३४ १. श्रमण संघ : स्वरूप ३५३ २. संघ की महत्ता ३५४ ३. संघ व्यवस्था के आधार ४. संघ के आधार ३५७ ५. आचार्य ३५७-३८१ (क) आचार्य का स्वरूप (ख) आचार्य के विशिष्ट गुण (ग) आचारवत्त्व आदि आठ गुण ३६२ (घ) आचार्य की गणि सम्पदायें (ङ) उत्तराधिकारी आचार्य (च) उत्तराधिकारी की नियुक्ति विधि ३६५ (छ) नवनियुक्त आचार्य को उद्बोधन ३६६ (ज) गण, गच्छ कुल और इनके प्रमुख ३६८-३७१ १. गण और उसके प्रमुख २. गच्छ और उसके प्रमुख ३. कुल और उसके प्रमुख ३७० (झ) एलाचार्य ३७१ (म) निर्यापकाचार्य ३७१ ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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