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श्रमण-संघ : ३७१ दोषों से रहित जो जिनदीक्षा के योग्य होता है वह कुल है।' स्थानांग टीका के अनुसार कई गच्छों के समूह से कुल का निर्माण होता है ।२ कुल का एक प्रमुख होता है । मूलाचार में कहा है कि जब कोई श्रमण अन्य आचार्य के पास विशेष अध्ययन आदि के लिए जाता तो वे आचार्य इस नवागन्तुक श्रमण के परिचय में नाम, गुरु आदि के साथ ही 'कुल' की जानकारी भी प्राप्त करते थे । ३
इनके अतिरिक्त भी जैन साहित्य में निम्नलिखित आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं।
एलाचार्य :-गुरु (आचार्य) के पश्चात् जो श्रमण चारित्र का क्रम (उपदेश) श्रमणों और आर्यिकाओं को कहता है उसे अनुदिस या एलाचार्य कहते हैं।
निर्यापकाचार्य :-देश संयम और सकलसंयम इन दोनों के छेद की शुद्धि के लिए प्रायश्चित देकर जो संवेग और वैराग्यवर्धक परमागम के वचनों द्वारा श्रमणों का संवरण करते हैं। उन्हें निर्यापक कहते हैं। इन्हें ही शिक्षागुरु या श्रुतगुरु भी कहते हैं । निर्यापक संसार भीरु, पापकर्म भीरू या सर्वजिनागम के ज्ञाता होते हैं । और ऐसे ही निर्यापकाचार्य के पादमूल में समाधिमरणोद्यमी श्रमण आराधना की सिद्धि करता है। समाधिमरण का इच्छुक श्रमण तो पाँच से सात सौ योजन से भी अधिक विहार करके ऐसे शास्त्रोक्त निर्यापक का अन्वेषण करते हैं क्योंकि निर्यापकत्व गुणधारक आचार्य ही समाधिमरण साधकर श्रमण का मन आह्लादित कर सकते हैं। मूलाचार तथा इसकी वृत्ति में कहा है कि जैसे कर्णधार से रहित उत्तम रत्नों से भरी नौकायें नगर के समीप किनारे आकर भी प्रमाद के कारण डूब जाती हैं.--वैसे साधु (क्षपक) रूपी नौकाएँ भी सम्यग्दर्शन ज्ञान और चरित्ररूपी रत्नों से परिपूर्ण हैं और सिद्धि के समीप तक आ चुकी हैं, फिर भी निर्यापकाचार्य के बिना प्रमाद के निमित्त से वे क्षपक रूपी नौकाएँ संसार समुद्र में डूब जाती है । अतः इस तरफ सावधानी अपेक्षित है।'
१. प्रवचनसार ता० वृ० २०३, पृ० २७६. २. स्थानांग टीका (अभयदेव सूरि) पृ० ५१६. ३. मूलाचार ४।१६६. ४. अनुगुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरणक्रममित्यनु दिक् एलाचार्यस्तस्मै विधिना
-भ० आ० की मूलाराधना टीका १७७. पृष्ठ ३९५. ५. प्रचनसार ता० वृ० २१०. ६. भ. आ० ४००-४०१. ७. वही ५०६. विजयोदया सहित. ८. मूलाचार वृत्तिसहित २।८८.
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