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________________ ३७० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन है अथवा सात पुरुषों या तीन पुरुषों के समुदाय को 'गच्छ' कहा है। मुख्यतः सात पुरुषों के समूह को गच्छ कहा जाता है ।२ धवला के अनुसार तीन पुरुषों का समुदाय गण है इसके ऊपर अर्थात् तीन से ज्यादा पुरुष का समूह गच्छ कहलाता है। जिस गच्छ में ज्ञान दर्शन, और चारित्र को वृद्धि होती रहती है वही गच्छ उन्नत और धर्म ऋद्धि से महान् ऋद्धिशाली कहा जाता है वही गच्छ रत्न उत्पन्न करने वाले रत्नाकर के सदृश है, जिसमें रत्नत्रय उत्पन्न होते है, मात्र संख्या बढ़ाने से नहीं। किन्तु जो गौरव से सहित आहार में लम्पट, मायाचारी, आलसी, लोभी तथा धर्म रहित है ऐसा शिथिल मुनि गच्छ में रहते हुए भी साधु समूह को नहीं चाहता । और जो प्रियधर्म, दृढ़धर्म आदि रूप विशिष्ट गुणों से रहित है वह आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करता है तो उसके चार काल (दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंस्कार रूप चार काल) विराधित होते हैं और गच्छ की विराधना हो जाती है ।" अतः गच्छ के प्रमुख को सर्वगुण सम्पन्न होना चाहिए। गच्छ के प्रमुख गच्छाचार्य कहलाते हैं । इनका कार्य गच्छ के आचार को रक्षा करते हुए स्वयं श्रेष्ठ आचार का पालन करना है । किन्तु जो आचार्य मुँह से मीठा बोलता हुआ गच्छ के आचार की रक्षा नहीं करता वह गच्छ का अपकारी होता है । और जो मात्र मीठा ही न बोलकर समय आने पर ताड़ना के द्वारा भी गच्छ के आचार की रक्षा करता है वह कल्याणरूप आनन्द का देने वाला है। मूलाचार और इसकी वृत्ति में उल्लिखित 'गच्छ' के अध्ययन से ज्ञात होता संघ, गण और गच्छ में अन्तर स्पष्ट नहीं है। कुल और उसके प्रमख-एक ही आचार्य की शिष्य सन्तति (परम्परा) का नाम कुल है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्यपरम्परा को कुल कहते हैं। प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि लौकिक १. ऋषि समुदाये चातुर्वर्ण्य श्रमण संघे वा सप्तपुरुषकस्त्रिपुरुषको वा गच्छः -मूलाचारवृत्ति ४।१७४. २. साप्तपुरुषिको गच्छ:-मूलाचार वृत्ति ४।१५३. ३, तिपुरिसओ गणो। तदुवरि गच्छो। धवला १३५, ४, २६।६३।८। -मूलाचार वृत्ति ४।१५३ ४. बृहत्कल्पभाष्य २११०-२१२२. ५. मूलाचार ४।१५३, १८५. ६. गच्छाचार पइन्ना-१७. ७. सर्वार्थसिद्धि ९।२४, पृ० ४४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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