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श्रमण-संघ : ३६९ के प्रमुख को गणाचार्य, गणी या गणधर कहते है । आचारांग की शीलांगवृत्ति में कहा है-जो आचार्य नहीं किन्तु बुद्धि से आचार्य के सदृश हों एवं गुरु की आज्ञा से साधु-समूह (श्रमण-गण) को लेकर पृथक् विहार करते हों वे गणधर कहलाते हैं।' श्रुत ज्ञानावरण के प्रकृष्ट क्षयोपशम के निमित्त से गण के धारण करने में समर्थ होना गणधरत्व है ।२
श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहार भाष्य में कहा है जैसे गाड़ी के धुरे के बिना चक्र नहीं चलता, वैसे ही गणाचार्य के बिना गण नहीं चलता। कल्पसूत्र टीका में कहा है-जो सूत्रार्थ का पूर्ण ज्ञाता हो, प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, व्यवहारकुशल, जाति और कुल से सम्पन्न, गम्भीर, लब्धिमान्, उपदेशादि द्वारा शिष्यादिकों के संग्रह में तथा उपसंग्रह-से अनुग्रह करने में तत्पर हो तथा साध्वाचार में कुशल और विशिष्ट तप करने वाला और जिन-शासनानुरागी को गणी कहा जाता है। गच्छाचार पइन्ना में कहा है ज्ञान, दर्शन, और चारित्र इन तीनों में सम्पन्न, समयसारों में प्रेरक जो अपने को गण में प्रतिष्ठित करता है वह गणी (गणाचार्य)५ है। इस प्रकार विशाल संघ से आचार्य की आज्ञानुसार निर्धारित श्रमणों के साथ अपने सम्यक् उद्देश्य की पूर्ति हेतु अलग विचरण करें वह श्रमणों का समूह गण है तथा उसके प्रमुख गणी या गणाचार्य हैं । गच्छ और उसके प्रमुख
वट्टकेर ने वैयावृत्य के प्रसंग में गच्छ का उल्लेख करते हुए आगन्तुक श्रमण द्वारा गच्छ में रहने वाले गुरु, बाल, वृद्ध, क्षीण शक्तिक और शैक्ष मुनियों की अपनी शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक वैयावृत्ति करने को कहा है। वसुनन्दि ने ऋषियों के समूह (ऋषिकुल) को अथवा चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ को 'गच्छ' कहा
१. नो आयरिओ पुण जो, तारिसओ चेव होइ बुद्धीए। ___ साहुगणं गहिऊणं, वियरइ सो गणहरो होइ ।। __ आचाराङ्ग शीलांगवृत्ति २, १, १०, २७९ पृ० ३२२. २. तत्वार्थ वार्तिक ८।१२।४१. ३. प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० २१८ से उद्धृत. ४. कल्पसूत्र : कल्पमञ्जरी टो का १-२, पृष्ठ ५४. ५. गच्छाचार पइन्ना ७।२०. ६. गच्छे वेज्जावच्चं गिलाणगुरु बालबुड्ढ़सेहाणं ।
जहजोगं कादव्वं सगसत्तीए पयत्रोण ॥ मूलाचार ४।१७४, ७. गच्छ ऋषिकुलं-मूलाचार वृत्ति ४।१८५,
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