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३६८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन के स्त्रीवर्ग में प्रमाद रहित होता है वही साधु ब्रह्मचर्य को जीवन पर्यन्त पार लगाता है।
इस प्रकार अच्छे-बुरे आश्रय के कारण पुरुष गुण-दोष को प्राप्त होता है अतः प्रशस्तगुण युक्त आधार (आश्रय) ही अपनाना चाहिए । गण, गच्छ, कुल और इनके प्रमुख
मूलाचारकार ने जहाँ आचार्य के अनेक विशिष्ट गुणों का वर्णन किया है वहां संघ की विशेषताओं का भी काफी अच्छा प्रतिपादन किया है। साथ ही गण, गच्छ और कुल का भी उल्लेख किया है। इन उल्लेखों से यह भी अवश्य स्पष्ट होता है कि वट्टकेर तथा वसुनन्दि की दृष्टि में संघ, गण, गच्छ और आदि में अन्तर स्पष्ट नहीं था। इस तरह के अन्तर का इन्होंने उल्लेख भी नहीं किया। किन्तु वट्टकेर कषाय के वशीभूत होकर संघ को तोड़ने वाली तथा एकाकी विहार आदि की प्रवृत्तियों के घोर विरोधी थे। इसीलिए उन्होंने आचार्य के सानिध्य में संघ में ही रहकर आत्म कल्याण करने के लिए पदे-पदे प्रेरित किया है। कुछ शिथिलाचारी साधु कषाय के वशीभूत होकर अन्त समय में संघ छोड़कर गण में प्रविष्ट हो जाते थे उनके विषय में क्षोभ व्यक्त करते हुए वट्टकेर ने कहा है कि गण में प्रवेश की अपेक्षा विवाह कर लेना अच्छा है क्योंकि विवाह से तो राग की हो उत्पत्ति होती है किन्तु गण तो अनेक दोषों की खान (उत्पत्ति स्थान) है। फिर भी संघ की इकाई की दृष्टि से यदि गण, गच्छ आदि अपने स्वरूप और उद्देश्य के अनुसार कार्य करते हैं तो इनकी अपनी महत्ता है। क्रमशः इनका विवेचन इस प्रकार है
गण और उसके प्रमुख तीन पुरुषों के समुदाय अथवा स्थविर-मर्यादा के उपदेशक या श्रुत में वृद्ध श्रमणों (स्थविरों) की सन्तति (परम्परा) या उनके समूह को गण कहते हैं । कुल के समुदाय अथवा जिसमें तीन कुल के समुदाय शामिल हों वह गण है । गण में सम्मिलित होने के लिए श्रमण को अटूट श्रद्धा, मेधा, नम्रता, अपरिग्रह एवं बहुश्रुत आदि गुणों से युक्त होना अपेक्षित है। गण
१. वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं ।
विवाहे राग उप्पत्ति गणो दोसाणमागरो । मूलाचार १०।९२. २. धवला १३१५, ४, २६।६३१८, त्रैपुरुषिको गणः-मूलाचार वृत्ति ४।१५३. ३. सर्वार्थसिद्धि ९।२४, पृ० ४४२, तत्वार्थश्लोक वार्तिक ९।२४, भाव पाहुड
टीका ७८. ४. स्थानांगसूत्र पृ० ३५३.
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