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________________ श्रमण संघ : ३६७ शील और गुणों में सदा वृद्धि को प्राप्त होते रहो। तुम मार्जार अर्थात् विलाव के शब्द की तरह आचरण मत करना । क्योंकि विलाव का शब्द पहले जोर का होता है, फिर क्रम से मन्द हो जाता है । उसी प्रकार रत्नत्रय को भावना को पहले बड़े उत्साह से करके पीछे धीरे-धीरे मन्द मत करना । और इस तरह अपना और अपने संघ--इन दोनों का विनाश मत करना । प्रारम्भ में ही कठोर तप की भावना में लगकर आप और गण को भी उसी में लगाकर दुश्चर होने से विनाश को प्राप्त होंगे । क्योंकि जो जलते हुए अपने घर को भी आलस्यवश बचाना नहीं चाहता, उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरे के जलते हुए घर को बचायेगा । अतः ज्ञान, दर्शन और चारिप विषयक अतिचारों को दूर करो। धार्मिकों और मिथ्यादृष्टियों के साथ विरोध नहीं करना चाहिए । चित्त की शान्ति भंग करने वाला वाद-विवाद भी नहीं करना चाहिए। क्रोधादि कषायें अपनी और दूसरे की मृत्यु में कारण होती है अतः ये विषरूप है और हृदय को जलाने के कारण वे आग की तरह हैं अतः उन्हें छोड़ना चाहिए । ___आचार्य समझाते हुए आगे कहते हैं आगम के सारभूत रत्नत्रय में जो गण को और अपने को स्थापित करता है वही गणधर (आचार्य) कहलाता है। मेरे अधीन बहुत मुनि हैं अतः अपने आप में गणी होने का घमण्ड मत करना । जो उद्गम आदि दोषों से युक्त आहार, उपकरण अथवा वसति को स्वीकार करता है उसके न तो प्राणिसंयम है और न इन्द्रियसंयम । अतः वह न तो यति है और न गणधर । __हमारा यह आचार्य (गुरु) आलोचित दोषों को दूसरे से नहीं कहता-ऐसा मानकर शिष्यों के द्वारा प्रकट किये अपराधों को किसी अन्य से मत कहो । कार्यों में समदर्शी ही रहो । और बाल तथा वृद्ध यतियों से भरे गण को अपनी आंख की तरह रक्षा करो। जिस क्षेत्र में कोई राजा न हो अथवा वह दुष्ट हो उस क्षेत्र को त्याग दो, जिस क्षेत्र में प्रवज्या न हो अथवा संयम का घात हो उस क्षेत्र को त्याग दो । दुःसह परीषहों से और तीक्ष्ण आक्रोशवचन रूपी काँटों से पराभूत होकर भी धर्म की धुरा के भार को मत त्यागो। बाल और वृद्ध मुनियों से भरे हुए गण में सर्वज्ञ की आज्ञा से सदा अपनी शक्ति और भक्ति से वैयावृत्य करने में तत्पर रहो । क्योंकि सर्वज्ञदेव की आज्ञा है कि वैयावृत्य करना चाहिए । जैसे आचार्य की धारणा से संघ की धारणा होती है वैसे ही एक साधु की धारणा से अर्थात् वैयावृत्य करने से साधु समुदाय की धारणा होती है। वृद्ध, अनशन आदि तप में तत्पर तपस्वी, बहुश्रुत और प्रमाण माना जाने वाला भी साधु आर्या स्त्री के संसर्ग से लोकापवाद का भागी होता है । अतः जो इनका ही नहीं अपितु बाला, कन्या, तरुणी, वृद्धा, सुरूप और कुरूप सभी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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