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________________ ३६६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन शुभ करण, शुभ नक्षत्र और शुभलग्न तथा शुभ देश में, गच्छ का पालन करने योग्य गुणों से विभूषित अपने समान भिक्षु का विचार करने के पश्चात् वह धीर आचार्य 'अल्पकथा' अर्थात् इस विषय में अल्प वक्तव्य रूप उपदेश देकर उस बालाचार्य के लिए अपना गण विसर्जित करते (सौंपने) हैं। अर्थात् अपना पद छोड़कर सम्पूर्ग गण को बालाचार्य के लिए छोड़ देते हैं। और इस तरह बालाचार्य ही यहाँ से उस गण का आचार्य समझा जाता है। आचार्य समस्त अर्थात चतुर्विध संघ से कहते हैं कि ज्ञान-दर्शन और चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो अतः सब गुणों से युक्त जानकर इसे मैंने अपना उत्तराधिकारी बनाया है। अब यह तुम्हारा आचार्य है। आप सब इस गण का पालन करें। इतना कहकर उस बालाचार्य को अनुज्ञा करते हैं । वे अपने द्वारा स्वीकृत उस आचार्य को संघ के मध्य में स्थापित करके तथा स्वयं अलग होकर बाल और वृद्ध मुनियों से भरे उस गण से मन, वचन और काय पूर्वक क्षमा याचना करते हैं। वे कहते है दीर्घकाल तक साथ रहने से उत्पन्न हुए ममता, स्नेह, द्वेष और राग वश जो कटु और कठिन (कड़े) वचन कहे गये हों उन सबके प्रति मैं क्षमा याचना करता हूं। समस्त संघ भी वन्दना करके, पंचांग नमस्कार पूर्वक संसार के दुःखों से रक्षा करने वाले, सबको प्रिय, उत्तम क्षमादि दस धर्मों में स्वयं प्रवृत और दूसरों को प्रवृत्त कराने वाले आचार्य से मन, वचन और काय पूर्वक क्षमा याचना करता है । - इसके बाद वे आचार्य पद से अन्तिम रूप में अनेक प्रकार की अच्छी शिक्षा रूप उपदेश चतुर्विध संघ के समक्ष प्रदान करते हुए कहते है कि जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे गये सूत्र आदि अर्थ में जो निपुण है, जिसने प्रायश्चित्त शास्त्र सुना है वह आचार्य अपने प्रयोजन की चिन्ता करते हुए भी जिन भगवान् की आज्ञा से गण की चिन्ता करता है । क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति में स्थित सभी श्रमणों और गृहस्थों को मुक्ति के मार्ग में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बढ़ाने वाला विहार तथा उत्तरोत्तर उन्नत अनुष्ठान करना चाहिए । इस प्रकार शुभ तिथि आदि से युक्त काल और देश में गणाधिपति आचार्य और गण को भी स्नेह सहित, माधुर्य युक्त, सारवान होने से गम्भीर, सुख से समझ में आने वाली चित्त को आनन्द दायक और हितकारी शिक्षा देते हैं। नवनियुक्त आचार्य को उदबोधन : शिक्षा देने के बाद वे आचार्य नव नियुक्त उत्तराधिकारी आचार्य को आशीर्वाद देते हैं और मार्मिक रूप में कर्त्तव्य बोध कराते हुए कहते हैं कि "उत्पत्ति स्थान में छोटी सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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