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श्रमण संघ : ३६५
उत्तराधिकारी आचार्य
आचार्य अपने संघ का नायक होता है। जब वह यह अनुभव करने लगता है कि इस आयुष्य का कोई भरोसा नहीं और संघ का विकास नेतृत्व के वैशिष्टय पर आधारित है अतः अपने पद का सुयोग्यतम उत्तराधिकारी आवश्यक है । जिसे संघ का दायित्व उस उत्तराधिकारी को सौंपकर निःशल्य रूप में आत्मसाधना में लीन हो सकें। आचार्य के उत्तराधिकारी को बालाचार्य, युवाचार्य आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहार सूत्र में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने की योग्यताओं के विषय में कहा है कि जो कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला, श्रमणाचार में कुशल, प्रवचन में प्रवीण, प्रज्ञाबुद्धि में निष्णात, आहारादि के उपग्रह में कुशल, अखण्डाचारी, सबल दोषों से रहित, भिन्नतारहित आचार का पालन करने वाले, निःकषाय चारित्र वाले, अनेक सूत्रों और आगमों आदि में पारंगत श्रमण, आचार्य अथवा उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित होने के योग्य हैं।'
ऐसा भी उल्लेख है कि जब आचार्य रोग आदि की गिल्यता को प्राप्त हो जाये तो अपने शिष्यों को बुलाकर कहते थे कि मेरा आयुष्य पूर्ण होने के बाद इन योग्यताओं वाले अमुक श्रमण को इस पद पर प्रतिष्ठित करना । यदि वह इस पद के योग्य परीक्षा में असफल रहे तो दुसरे को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना । आचार्य द्वारा निर्दिष्ट साधु को उस समय पदवी के योग्य होने की अवस्था में ही पदवी प्रदान करना चाहिए, अयोग्यता की अवस्था में नहीं। कदाचित् उसे पदवी प्रदान कर दी गई हो किन्तु उसमें आवश्यक योग्यता न हो तो अन्य साधुओं को उससे कहना चाहिए कि तुम इस पदवी के अयोग्य हो अतः इसे छोड़ दो । ऐसी अवस्था में यदि वह पदवी छोड़ देता है तो उसे किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है।
उत्तराधिकारी की नियुक्ति विधि : भगवती आराधना में उत्तराधिकारी आचार्य की नियुक्ति के सन्दर्भ में कहा है कि सल्लेखना करने के इच्छुक गणस्थ आचार्य को गण (संघ) का हित सोचना चाहिए । इस कारण आचार्य को अपनी आयु की स्थिति-विचारकर सम्पूर्ण संघ को और बालाचार्य को बुलाकर शुभ दिन,
१. व्यवहारसूत्र ३१५. २. व्यवहारसूत्र ४।१३ ३. व्यवहार भाष्य चतुर्थ उद्देश्य (जै० सा० का बृ० इतिहास भाग ३ पृ.
२६३). ४. भगवती आराधना गाथा २७४ से ३५८ (विजयोदयाटीका सहित)
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