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श्रमण संघ : ३६३
उपर्युक्त आठ गुणों के अतिरिक्त आचेलक्य, औदेशिक का त्याग, शय्यागृह त्याग, राजपिण्ड का त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासस्थिति और पर्युषण -- ये दस स्थितिकल्प | बारह तप और छह आवश्यकों का विवेचन पहले ही किया जा चुका है । इस तरह आचार्य के छत्तीस गुण प्रतिपादित हैं । आचार्य की गणि सम्पदायें :
स्थानांग में आचार्य को आठ गया है -- १. आचार सम्पदा, २. श्रुत सम्पदा, सम्पदा, ५. वाचना सम्पदा- ६. मति सम्पदा, ७ और ८. संग्रह परिज्ञा ( संघ व्यवस्था में निपुणता । भेदों सहित प्रतिपादन किया गया है ।
प्रकार की गणि सम्पदाओं से युक्त बतलाया ३. शरीर सम्पदा, ४ वचन प्रयोग सम्पदा (वाद कौशल) इनमें से प्रत्येक के चार-चार
१. आचार संपदा - - इसके अन्तर्गत १. संयम ध्रुवयोगयुक्तता - अर्थात् चारित्र में सदा समाधियुक्त होना । २. असंप्रग्रह - जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार । ३. अनियतवृत्ति, ४. बृद्धशोलता - शरीर और मन की निर्विकारता,
अचंचलता ।
२. श्रुत संपदा -- इसके अन्तर्गत - १. बहुश्रुतता, २. परिचितसूत्रता, ३. विचित्रसूत्रता - -स्व और पर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में निपुणता अथवा उत्सर्ग और अपवाद को जाननेवाला, ४. घोषविशुद्धिकर्ता अपने शिष्यों को सूत्र उच्चारण का स्पष्ट अभ्यास कराने में समर्थता ।
३. शरीर सम्पदा - १. आरोहपरिणाहयुक्तता — आरोह = ऊँचाई, परिणाह = विशालता अर्थात् शरीर का उचित ऊँचाई और विशालता से सम्पन्न होना । २. अनवत्रपता —-अलज्जनोय अंगवाला होना । ३. परिपूर्ण इन्द्रियता, ४. स्थिरसंहननता ।
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४. वचन सम्पदा - १. आदेय वचनता — जिसके वचनों को सभी स्वीकार करते हों । २. मधुरवचनता - ३. अनिश्रितवचनता --- मध्यस्थवचन, ४. असंदिग्ध
वचनता ।
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१. अट्ठविहा गणि संपया पण्णत्ता तं जहा - आचारसंपया, सुयसंपया, सरीरसंपया, वयणसंपया, वायणासंपया, मतिसंपया, पओगसंपया, संगहपरिण्णा णाम अटठमा—स्थानांग सूत्र ८।१५.
२. (क) दशाश्रुतस्कंध दशा ४.
(ख) स्थानांगवृत्ति पत्र ४०१ ( ठाणं ८ १५ की टिप्पण पृ० ८२७ -८२९ प्रकाशक —– जैन विश्व भारती, लाडनूं वि० सं० २०३३ से उद्धृत )
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