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________________ ३६२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन आठ गुण-ये छत्तीस गुण अथवा दस आलोचना गुण, दस प्रायश्चित्त गुण, दस स्थिति गुण और छह जीत गुण-इस प्रकार छत्तीस गुणों का उल्लेख किया है। आचारवत्त्व आदि आठ गुण : १. आचारवत्त्व-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य- इन पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं पालन करना और दूसरों से पालन करवाना । २. आधारवत्व-श्रुत (आगम) का अमाधारण ज्ञान । ३. व्यवहारपटु-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पाँच प्रकार के व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त को तत्त्वरूप से विस्तार के साथ जानता है तथा जिनने अनेक आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखा है और स्वयं दूसरों को प्रायश्चित्त दिया है वे आचार्य व्यवहारवान हैं ।२ । ४. प्रकुवित्व (पकुव्वओ)-समाधिमरण कराने और ऐसे श्रमणों की पूर्ण सजगता से वैयावृत्त्य करने एवं कराने में कुशल । ५. आयापायदेष्टा-सरलभावों से आलोचना करने वाले क्षपक के गुणों तथा दोषों को बतलाने में कुशल । ६. उत्पीलक (अवव्रीडक)-छिपाये गये (गुह्य) अतिचारों को भी प्रगट कराने में समर्थ । ७. अपरित्रावी-श्रमणों द्वारा आलोचित गोप्यदोष को दूसरों पर प्रकाशित न करके पानी के घुट की तरह पीने वाले । ८. सुखावह-श्रमणों को समाधिमरण के समय क्षुधादि दुःखों से घबड़ाकर विमख न होने देने के लिए उत्तम कथाओं द्वारा उन दुःखों का उपशमन करने वाले । श्वेताम्बर परम्परा के व्यवहारभाष्य में प्रायश्चित्तों के वर्णन प्रसंग में आलोचनाह की विशेषतायें बतलाते हुए कहा है कि आलोचनाहं निरपलापी होता है और इन आठ विशेषणों से युक्त होता है जो पूर्वोक्त आचार्य के आठ गुणों के समान हैं। यथा--आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिस्रावी ।। १. भ० आ० मूलाराधना टीका ५२८. २. भ. आ० ४५१. ३. अनगारधर्मामृत ९।७६-७७. ४. व्यवहारभाष्य गाथा ३३६-३४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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