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________________ श्रमण संघ : ३६१ भाचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रकुर्वीत (कर्ता), आयापाय-दर्शनोद्यत, (रत्नत्रय के लाभ और विनाश को दिखाने वाला), अवपोडक (उत्पीलक), अपरिस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रथितकीर्ति (प्रसिद्ध कीर्तिशाली) तथा निर्यापन-इन सभी गुणों से विशिष्ट होना चाहिए।' वटकर ने आचार्य को निम्नलिखित गुणों से युक्त माना है-संग्रह और अनुग्रह (शिक्षा देकर योग्य बनाने) में कुशल, सूत्रार्थ विशारद, प्रथित कीति, क्रियाओं के आचरण में तत्पर, ग्रहण करने योग्य तथा उपादेय वचन बोलने वाला, गंभीर, दुर्धर्ष (प्रवादियों द्वारा परिभव-तिरस्कार नहीं किये जा सकने वाले), शूर, धर्म की प्रभावना करने वाला, क्षमागुण में पृथ्वी, सोम्यता में चन्द्रमा तथा निर्मलता में समुद्र के समान आचार्य होते हैं । मूलाचार में आचार्य के उपर्युक्त गुण बतलाये हैं किन्तु अन्यान्य ग्रन्थों में में उल्लिखित इन गुणों को निश्चित छत्तीस संख्या का स्पष्ट उल्लेख नहीं है जब कि इन सभी गुणों का प्रतिपादन प्रसंगानुसार मूलाचारकार ने किया अवश्य है । विभिन्न आचार्यों ने आचार्य के गुणों की संख्या 'छत्तीस' स्वीकार अवश्य की है किन्तु ये छत्तीस गुण कौन-कौन है-इनमें सभी आचार्य एक मत नहीं है। भगवती आराधना में आचार्य के छत्तोस गुणों का उल्लेख है-आचारवत्त्व आदि आठ गुण, दस स्थितिकल्प, बारह तप और छह आवश्यक । अपराजितसूरि के अनुसार आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति तथा तोन गुप्ति-ये छत्तीस गुण हैं । आशाधर ने अट्ठाईस मूलगुण तथा आचारवत्त्व आदि - १. आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुव्वीय । आयावायविदंसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥ अपरिस्साई णिम्वावओ य णिज्जावओ पहिदकित्ती। णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥ भ० आ० ४१९, ४२०. २. संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती। किरिआचरण सुजुत्तो गाहुय आदेज्जवयणो य ॥ गंभीरो दुदरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो । खिदिससिसायरसरिसो कमेण तं सो दु सपत्तो । मूलाचार ४३१५८, १५९. ३. आयारवमादीया अठ्ठगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो । बारस तव छावासय छत्तीस गुणा मुणेयव्वा ॥ भ० आ० ५२८, अन० धर्मा० ९७६. ४. अष्टौ ज्ञानाचाराः दर्शनाचाराश्चाष्टी, तपो द्वादशविध, पंच समितयः, तिस्रो गुप्तयश्च त्रिंशद्गुणाः । -भ० आ० विजयोदया टीका ५२८. २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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