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३६० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
कल्पसूत्र टीका के अनुसार - जिनशासन के अर्थ का उपदेशक होने के कारण मोक्ष के अभिलाषी शिष्य विनयपूर्वक जिसकी सेवा करते हैं, वह सूत्रार्थं का दाता मुनिवर 'आचार्य' कहलाते हैं। सूत्र और अर्थ अथवा सूत्रों के अर्थ का ज्ञाता, प्रशस्त लक्षणों से युक्त, गच्छ के आधारभूत और गण की चिन्ता नहीं करने वाले आचार्य सूत्रार्थ का व्याख्यान करते हैं । "
दशवेकालिक चूर्ण में कहा है – सूत्र और अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरु पद पर स्थापित होता है वह आचार्य कहलाता है ।"
इस प्रकार उपयुक्त स्वरूप के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य अनेक विशिष्ट गुणों से युक्त होते हैं। क्योंकि साधुओं की दीक्षा - शिक्षा के देने वाले, उनके दोषों का निवारण करके सद्गुणों में प्रवृत्त कराने वाले, अनेक गुगविशिष्ट, संघ नायक साधु को ही आचार्य कहते हैं वीतराग होने के कारण पंचपरमेष्ठी में उनका स्थान है और उनमें किञ्चित् देवत्व भी माना गया है । 3
योग्य आचार्य से ही संघ की प्रतिष्ठा होती है तथा योग्य आचार्य के संघ में रहकर साधना और संयम द्वारा मुनि निर्विघ्नपूर्वक स्व-पर कल्याण के अपने लक्ष्य को पूर्ण करता है । योग्य आचार्य ही अपने कौशल से उन्मार्गगामी शिष्यों को शीघ्र ही सन्मार्ग पर लगा लेते हैं | अभयदेवसूरि ने कहा है कि "अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले शिष्य को मार्ग पर लाने के लिए भी उपालम्भ देना चाहिए। क्योंकि आचार्य संघ के नायक हैं जो निरन्तर सावधान हैं। उनके द्वारा बार-बार सन्नार्ग में लगाया गया वह आराधक साधु समुदायरूपी महावन को पार करता है । वह संघपति आचार्य अपने द्वारा भावना आदि में नियुक्त साधु समुदाय की इन्द्रिय रूपी चोरों से और कषायरूपी अनेक हिंसक जंगली जानवरों से रक्षा करता है । 4
आचार्य के विशिष्ट गुण :
श्रमण ( साधुत्व ) की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय, और साधु - सभी समान होते हैं और सामान्य रूप से मूलगुणों तथा उत्तरगुणों का पालन सभी को समान रूप से करना होता है किन्तु आचार्य संघ का प्रधान होता है अतः उसमें अनेक विशिष्ट गुण आवश्यक माने गये हैं । भगवती आराधना में कहा है आचार्य को
१. कल्पसूत्र कल्पमंजरी टीका पृष्ठ ४९.
२. दशवैकालिक (अगस्त्य सिंह ) चूर्णि ९ । ३ । १.
३. नियमसार तात्पर्यवृत्ति १४६. बोघपाहुड १ । १.
४. ज्ञाताधर्मकथा विवरण १११ पृष्ठ ७७,
५. भ० आ० १२८२-१२८७.
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